बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

मिलन की बिजलियाँ हैं कौंधती सुगंधों में.

मिलन की बिजलियाँ हैं कौंधती सुगंधों में.
हवाएं आई हैं उत्तर से, आज, बरसों में.
तू अपने कारवां का डाल दे पड़ाव यहाँ,
कि साक्षात बसा लूँ मैं तुझको आंखों में.
जुदाई की मैं करूँ क्या शिकायतें तुझसे,
मैं अपशकुन न करूँगा खुशी के लम्हों में.
वो मांगता है क्षमा, चाहता है समझौता,
गिरा न पाऊंगा उसको मैं अपनी नज़रों में.
मैं जान-बूझ के बेगाना बन गया उससे,
कि देखूं, और भी कोई है, उसके सप्नों में.
दुखों ने पाँव से कुचला न होता दिल को मेरे,
कभी वो चर्चा अगर करता, इसकी मित्रों में.
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1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया गजल है।बधाई।