गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.
मौत आयेगी उजालों के समंदर ओढे.
हम भी दुःख-दर्द की दुनिया में उसी तर्ह जिये,
जैसे वीरानों में गौतम ने हैं पत्थर ओढे.
जिस्म मिटटी का है मिटटी में इसे मिलना है,
होगा क्या, जिस्म पे कितना भी कोई ज़र ओढे.
जेबे-तन ब्रज में कन्हैया ने है की ज़र्द कसा,
काली कमली हैं मदीने में पयम्बर ओढे.
तर्क इंसान न कर पाया कभी हुब्बे-वतन,
बूए-काबुल रहा अफ़कार में बाबर ओढे,
सफ़रे-वस्ल हुआ करता है दुश्वार-गुज़ार,
रूह ने आबला-पायी के हैं गौहर ओढे.
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ज़र=सोना, जेबे-तन=शरीर पर सज्जित, ज़र्द कसा=पीताम्बर, हुब्बे-वतन=मातृभूमि प्रेम, बूए-काबुल=काबुल की सुगंध, अफ़कार=वैचारिकता, सफ़रे-वस्ल=मिलन-यात्रा, दुश्वार-गुज़र=कष्टसाध्य, रूह=आत्मा, आबला-पायी= पाँव में छाले पड़ जाना, गौहर=मोती.

2 टिप्‍पणियां:

Mohinder56 ने कहा…

खूबसूरत अलफ़ाज से सजी हुई गजल के लिये बधाई. कई पहलू हैं इस जिन्दगी के.. एक पहलू यह भी है

किसी को बुत में पत्थर, किसी को खुदा नजर आया
जिसने जो देखना चाहा, उसे बस वही नजर आया

गौतम राजऋषि ने कहा…

चौथा शेर अभिभूत कर गया है....सिर्फ बहुत बढ़िया कह कर रह जाना अन्याय होगा

सलाम आपको सर