गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.

मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.
खुशबू-बदन-लिबास की फरहत चुराते हैं.
जो अब्र बारिशों की हैं तह में छुपे हुए,
तेरा मिजाज, तेरी तबीअत चुराते हैं.
तेरे लबो-दहन का नमक चख चुके हैं जो,
एहसास में, ये कीमती दौलत चुराते हैं.
देखा है जाहिदों को तसौवुर से जाम के,
बेसाख्ता शराब की लज्ज़त चुराते हैं.
ये मेहरो-माह भी तो गिरफ़्तारे-इश्क हैं,
ये सुब्हो-शाम तेरी फ़ज़ीलत चुराते हैं.
नज़रों से इस जहान की अब तंग आ चुके,
लो आज हम भी अपनी शराफत चुराते हैं।
**************

1 टिप्पणी:

गौतम राजऋषि ने कहा…

"जो अब्र बारिशों की हैं तह में छुपे हुए,
तेरा मिजाज, तेरी तबीअत चुराते हैं"

...क्या बात है सर,क्या बात है।
एक गुज़ारिश थी शैलेश जी-ये गज़लें आपकी हीरे-पन्ने के खज़ाने से कम नहीं और मैं और मेरे जैसे ही कई अन्य चाहते हैं कि ये कई लोगों तक पहुँचे।अपने इस ब्लौग का लिंक कम-से-कम चिट्ठा-जगत और ब्लौगवाणी जैसे एग्रीगेटर से तो जोड़ दिजिये ताकि खूब सारे लोग आ सकें इन्हें पढ़ने...
आपकी इस बात से तो हम भी सहमति रखते हैं कि "नज़रों से इस जहान की अब तंग आ चुके/लो आज हम भी अपनी शराफत चुराते हैं"