बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

हमको समझ के बादए-गुलरंगो-मुश्कबू.

हमको समझ के बादए-गुलरंगो-मुश्कबू.
हसरत से राह में हैं खड़े रिंद चार सू.
आवाज़ उसकी घुलती गई मेरे जिस्म में,
बज्मे-तरब में बस वो अकेला था खुश-गुलू.
कोई तो लड़खडा गया पीकर बस एक जाम,
ज़िद थी किसी को पी के रहेंगे खुमो-सुबू.
आतिश की नज़्र हो गए खामोश-लब मकाँ,
सब बे-खता थे जिनका बहाया गया लहू.
ख्वाबीदगी में लेता रहा सिर्फ़ तेरा नाम,
बेदारियों में, तुझ से रहा महवे-गुफ्तुगू.
तेरी जबीं पे अब भी हैं मेरे लहू के दाग,
आईना रख के देख कभी अपने रू-ब-रू.
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बादए गुलरंगो-मुश्क-बू=कस्तूरी सुगंध वाली गुलाबी शराब, हसरत=लालसा, रिंद=शराबी, बज्मे-तरब=संगीत-गोष्ठी, खुमो-सुबू=शराब के घडे और मटके, आतिश=आग, खामोश-लब=चुप्पी साधे हुए, ख्वाबीदगी=सुषुप्तावस्था, बेदारियों=जाग्रतावस्था, महवे-गुफ्तुगू=बात-चीत में व्यस्त, जबीं= ललाट, रू-ब-रू. =चेहरे के सामन

1 टिप्पणी:

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

"ख्वाबीदगी में लेता रहा सिर्फ़ तेरा नाम,
बेदारियों में, तुझ से रहा महवे-गुफ्तुगू.
तेरी जबीं पे अब भी हैं मेरे लहू के दाग,
आईना रख के देख कभी अपने रू-ब-रू."

ये पंक्तियाँ काफी अच्छी लगी ...