फ़ारसी साहित्य के प्रख्यात कवि हाफिज़ शीराजी ने अपने समय के मूल्य-परक परिवर्तनों को जिस रूप में एक ग़ज़ल में [ईं चि शोरीस्त की दर दौरि-क़मर मी बीनम / हमा आफ़ाक़ पुर-अज फ़ित्न'ओ-शर मी बीनम]रस्तुत किया है उसकी प्रासंगिकता आजके दौर में देखि जा सकती है. उर्दू ग़ज़ल में उसे रूपांतरित कर के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.
शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.
हर तरफ़ दुनिया में है फ़ित्न'ओ-शर देखता हूँ.
ख्वाहिश हर शख्स की है और हों बेहतर अयियाम,
मुश्किलें ये हैं कि हर रोज़ बतर देखता हूँ.
अहमकों के लिए हैं कंद वो गुल के मशरूब,
रिज़्क़ दानाओं का अज़ खूने-जिगर देखता हूँ.
ताज़ी घोडे तो हैं पालान के नीचे ज़ख्मी,
तौक़ सोने का हैं पहने हुए खर देखता हूँ.
लडकियां करती हैं माँओं से यहाँ जंगो-जदल,
और लड़कों को मैं बद्ख्वाहे-पिदर देखता हूँ.
रह्म करता नहीं अब भाई पे भाई मुतलक़,
प्यार से बाप के महरूम पिसर देखता हूँ.
जाके ख्वाजा करो हाफ़िज़ की नसीहत पे अमल,
मैं इसे कीमती अज़ दुर्रो-गुहर देखता हूँ.
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दौरे-क़मर= चंद्रमा के युग में, पुर अज़ फ़ित्न'ओ-शर= उपद्रवों और बुराइयों से भरा हुआ, बेहतर अयियाम=अच्छे दिनों, बतर= और भी बुरा, कंद=दानेदार शकर, गुल=गुलाब, मशरूब=पेय/ शरबत, रिज़्क़=रोज़ी, दानाओं=बुद्धिमानों, खूने-जिगर=खून-पसीना बहाकर, पालान=घोडे का ज़ीन, तौक़=हंसली, खर=गधा, जंगो-जदल=लड़ाई-झगडा, बद्ख्वाहि-पिदर= बाप का बुरा चाहने वाला, रह्म=दया, मुतलक़=tanik भी, महरूम=वंचित, पिसर=बेटा, नसीहत=उपदेश, कीमती अज़ दुर्रो-गुहर=रत्न और मुक्ता से अधिक मूल्यवान.
रविवार, 22 फ़रवरी 2009
शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.
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2 टिप्पणियां:
हाफिज जी को बढ़ के धन्य हुआ बेहत खुबसूरत बात कही है उन्होंने .... आपका लाख लाख शुक्रिया.....
अर्श
सर आपको किन शब्दों में शुक्रिया कहूँ शीराजी की इस फ़ारसी ग़ज़ल को अनुवाद कर हमें अनुग्रहित करने के लिये....
आश्चर्य है कि ’युग-विमर्श’ में आप इतनी अप्रतिम सामग्रियां उपलब्ध करवाते हैं,लोग अनजान कैसे हैं...
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