हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं.
नक़ाब-पोशियाँ भाईं कभी बुतों को नहीं.
खुशी हुई उसे, दिल की इबारतें पढ़कर,
कि उसने चाहा कभी सादे काग़ज़ों को नहीं.
गुलाब जैसी है रंगत भी और खुशबू भी,
कोई ज़रूरते-तज़ईन उन लबों को नहीं.
सहाफ़ियों को है रंगीनियों में दिलचस्पी,
अज़ीज़ रखते ज़रा भी वो मुफ़्लिसों को नहीं.
हमारे दौर में है इक़तिदार की वक़अत,
कि आज पूछता कोई शराफतों को नहीं.
क़सीदे नज़्म करें किसलिए हुकूमत के,
किसी वजीफे की हाजत सुख़नवरों को नहीं.
जो बढ़ के जाम उठा ले, वही है बादा-परस्त,
मिली ये मय कभी दुनिया में काहिलों को नहीं.
तुम अपनी वज़अ पे क़ायम हो आज भी जाफ़र,
ग़मों में ज़ाया किया तुमने आंसुओं को नहीं।
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4 टिप्पणियां:
बहोत ही शानदार लिखा है आपने साहब
बहोत ही खूबसूरती से पेश किया है ढेरो बधाई कुबूल करें...
अर्श
tum apni vazam pe kayam ho aaj bhi gamo ko jaya kiya tumne aansuon ko nahi bahut khubsurat andaaz hai jindagi ka bahut bahut badhai
'ख़ुशी हुई उसे दिल की …'
'क़सीदे नज़्म करें…'
'जो बढ़ के जाम उठा ले…'
बहुत ख़ूब!, बहुत ही शानदार!
'जो बढ़ के जाम…' से एक पुराना शे'र याद आ गया पता नहीं किसका:-
ये बज़्म-ए-मय है यां कोताह-दस्ती में है महरूमी,
उठा ले हाथ में बढ़ कर, यहां मीना उसी का है।
बधाई।
वाह शैलेश जी ’किसी वजीफे की हाजत सुख़नवरों को नही”...क्या खूब सर
और मतला भी बड़ा दिलकश लगा
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