गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.
गिरते हैं पेड़, जिनकी हैं गहरी जड़ें नहीं.
कैसा भी सर्द-गर्म हो रहता है वो समान,
माथे पे उसके आतीं कभी सिलवटें नहीं.
चुचाप नंगे पाँव उतर आया कब वो चाँद,
कमरे में तो किसी ने सुनीं आहटें नहीं,
ये आज भावनाओं की देवी को क्या हुआ,
रेखाएं हैं ललाट पे, सुलझीं लटें नहीं.
सम्भव है एक दिन कभी सौहार्द ऐसा हो,
धर्मों में, जातियों में, ये इन्सां, बटें नहीं.
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1 टिप्पणी:

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति, मन को झंकृत करते शब्द ....!