हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.
जानें तो सही, लोगों की हैं आरज़ुएं क्या.
छुपती है कहाँ चेहरे पे आई हुई सुर्खी,
एहसास है, कहती हैं ये कानों की लवें क्या.
वो कहते हैं अच्छा नहीं लोगों से उलझना,
होता हो कहीं ज़ुल्म, तो खामोश रहें क्या.
क्यों खैरियतें पूछते हैं आप मुसलसल,
देना भी अगर चाहें, जवाब आपको दें क्या.
देहलीज़े-सियासत में क़दम रखना है मुश्किल,
किसको है खबर कब यहाँ तूफ़ान उठें क्या.
हर लम्हा तो रहती है उसे फ़िक्र हमारी,
आँखों में किसी शख्स की अब और चुभें क्या.
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जानें तो सही, लोगों की हैं आरज़ुएं क्या.
छुपती है कहाँ चेहरे पे आई हुई सुर्खी,
एहसास है, कहती हैं ये कानों की लवें क्या.
वो कहते हैं अच्छा नहीं लोगों से उलझना,
होता हो कहीं ज़ुल्म, तो खामोश रहें क्या.
क्यों खैरियतें पूछते हैं आप मुसलसल,
देना भी अगर चाहें, जवाब आपको दें क्या.
देहलीज़े-सियासत में क़दम रखना है मुश्किल,
किसको है खबर कब यहाँ तूफ़ान उठें क्या.
हर लम्हा तो रहती है उसे फ़िक्र हमारी,
आँखों में किसी शख्स की अब और चुभें क्या.
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1 टिप्पणी:
"हर लम्हा तो रहती है उसे फ़िक्र हमारी/ आँखों में किसी शख्स की अब और चुभें क्या"
वाह...क्या बात कही है सर!
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