शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.
हमें विशवास है अलगाव के फंदे से निकलेंगी.

किसी मस्जिद में तुलसीदास का बिस्तर लगा होगा,
अज़ानें भी किसी मंदिर के दरवाज़े से निकलेंगी.

बजाहिर जो दिखाई दे वही सच हो नहीं सकता,
गुबारों की तहें क़ालीन के नीचे से निकलेंगी.

परिस्थितियों से लड़ते लेखकों के दिन भी लौटेंगे,
विदेशों की तरह जब पुस्तकें रुतबे से निकलेंगी.

हमारे संस्कारों की जड़ें मज़बूत हैं अब भी,
ज़मीनें तोड़ कर दुनिया के हर गोशे से निकलेंगी.

छुपी हैं आज प्रतिभाएं जो पिछडेपन के परदे में,
समय अनुकूल होने पर ये खुद परदे से निकलेंगी.

स्वयं अपने ही घर वाले सुनेंगे किस तरह उनको,
वो आहें भीगने पर रात जो चुपके से निकलेंगी.

1 टिप्पणी:

गौतम राजऋषि ने कहा…

एक अंतराल के बाद आ रहा हूँ...आज फुरसत से पढ़ूँगा।
"गुबारों की तहें क़ालीन के नीचे से निकलेंगी" इस मिस्‍रे ने चित कर दिया...
मतला बस लाजवाब है- लाजवाब ! और आखिरी शेर तो आहsssss

लेकिन चौथे शेर के दूसरे मिस्‍रे में उलझ गया हूँ।
विदेशों की तरह निकलने का मंतव्य? शायद आप कहना चाह रहे हैं कि जैसे विदेशों में पुस्तकें धूम से निकलती हैं ऐसे ही दिन यहाँ भी फिरेंगे...