बुधवार, 18 मार्च 2009

कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.

कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.
वज़'अ पर अपनी मैं क़ायम था, न हिम्मत टूटी.
फ़ैसले हैं जो बनाते हैं मुक़द्दर की लकीर,
कोई लेकर नहीं आता कभी क़िस्मत टूटी.
कभी आंधी, कभी बारिश, कभी यख-बस्ता हवा,
इस नशेमन पे तो सौ तर्ह की आफ़त टूटी.
न रहा होश ही बाक़ी न रिवायत का ख़याल,
हाय किस चीज़ पे कमबख्त ये नीयत टूटी.
कितने ही करता रहा जिसकी हिफाज़त के जतन,
आखिरी मोड़ पे आकर वो रिफ़ाक़त टूटी.
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