ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / ये वो सफ़र है लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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बुधवार, 11 मार्च 2009

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.
मगर न जाये कोई, ये कभी सुना ही नहीं.
न रास्ते से हैं वाक़िफ़, न मंज़िलों की खबर,
बढायें खुद से क़दम, इतना हौसला ही नहीं.
हवा के सामने लौ जिसकी थरथराई न हो,
चरागे-ज़ीस्त कभी इस तरह जला ही नहीं,
तमाम उम्र ही मेहनत-कशी में गुज़री है,
सभी ये समझे मेरा कोई मुद्दुआ ही नहीं.
हर एक ज़ाविए से उसको देखता आया,
सरापा देखूं उसे ऐसा ज़ाविया ही नहीं.
अगर वो पूछ ले, क्या अपने साथ लाये हो,
मैं क्या कहूँगा मुझे इसकी इत्तेला ही नहीं.
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