मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
मनुष्य हूँ, ये मेरी साधना से निकलेगी.
नहा के आया हूँ मंदाकिनी के तट से अभी,
कला संवर के मेरी हर सदा से निकलेगी.
वो द्रौपदी थी जिसे पांडव थे हार चुके,
न कोई महिला कभी यूँ सभा से निकलेगी.
कटा हुआ वो अंगूठा हूँ एकलव्य का मैं,
कि जिसकी आह गुरू दक्षिणा से निकलेगी.
कहा था सपनों में 'ल्यूनार्दो' ने मुझसे कभी,
ये 'कैथारीना' ही 'मोनालिज़ा' से निकलेगी.
करेंगे यज्ञ युधिष्ठिर कि मुक्त पाप से हों,
दुआ शगुन की, दलित आत्मा से निकलेगी.
मिथक के बिम्ब नहीं हैं कहीं त्रिवेणी में,
बस एक श्रद्धा की छाया फ़िज़ा से निकलेगी.
****************
ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / मैं शिव नहीं हूँ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / मैं शिव नहीं हूँ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रविवार, 29 मार्च 2009
मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)