शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

ख़ुदा का पहिया / शेल सिल्वरस्टीन / तर्जुमा : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

ख़ुदा का पहिया

मुहब्बत आमेज़ मुस्कुराहट के साथ मुझसे

ख़ुदा ने पूछा था

चन्द लमहों को तुम ख़ुदा बन के

इस जहाँ को चलाना चाहोगे ?

मैंने हाँ ठीक है मैं कोशिश करूंगा कहकर

ख़ुदा से पूछा था

किस जगह बैठना है ?

तनख़्वाह क्या मिलेगी ?

रहेंगे अवक़ात लच के क्या ?

मिलेगी कब काम से फ़राग़त ?

ख़ुदा ने मुझसे कहा

के लौटा दो मेरा पहिया,

समझ गया मैं

के तुम अभी अच्छी तर्ह

तैयार ही नहीं हो।"

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1 टिप्पणी:

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

डॉ. शैलैश ज़ैदी साहब !
नमस्कार!
"युग-विमर्श" पर शेल सिल्वरस्टीन की रचना "खुदा का पहिया" पढ़ी। प्रायः कुछ लोग बिना कुछ सोचे-समझे दूसरे व्यक्तियों द्वारा किए जा रहे कामों में मीनमेख निकाल देते हैं। जब वही काम उनसे करने के लिए कहा जाता है तो बगले झाँकने लगते हैं। यह रचना कथनी और करनी भेद करने वाले व्यक्तियों को कटघरे में खड़ा कर अपने गिरेबान में झाँकने के लिए विवश करती है। काव्य का सर्वाघिक महत्वपूर्ण प्रयोजन जन-जागरण है। रचना अपने उद्देश्य में सफल है।
सद्भावी- -डा0 डंडा लखनवी