जहाँ-जहाँ पर्वतों के माथे
थोड़ा चौडे हो गए हैं
वहीं-वहीं बैठेंगे
फूल उगने तक
एक दूसरे की हथेलियाँ गरमाएंगे
दिग्विजय की खुशी में
मन फटने तक
देह का कहाँ तक करें बंटवारा
आजकल की घास पर घोडे सो गए हैं
मृत्यु को जन्म देकर
ईश्वर अपराधी है
इतनी जोरों से जियें हम दोनों
कि ईश्वर के अंधेरे को
क्षमा कर सकें.
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शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
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