[दो शब्द : नौशेरा पाकिस्तान में 14 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ वर्त्तमान उर्दू जगत के सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकार किए जाते हैं. उन्होंने रूमानी यथार्थवाद को अपनी ग़ज़लों में एक नया धरातल दिया. भाषा की सादगी उन्हें जनसामान्य तक पहुँचा देती है और विचारों की कोमलता तथा उनकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि जनमानस में कविता की समझ के संस्कार भरती दिखायी देती है. उनकी लोकप्रियता का मूल कारण भी यही है. स्वाभाव से फ़राज़ एक गर्म खून के पठान थे. फैज़ से प्रेरणा लेकर उन्होंने हर अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया. 1980 में मिलिटरी शासन के ख़िलाफ़ बोलने के जुर्म में उन्हें पहले कारावास और फिर देशिनिकाला की सज़ा झेलनी पड़ी.वे लन्दन में रहे और अंत तक सरकार से कोई समझौता करना उन्होंने पसंद नहीं किया. इधर काफ़ी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. शिकागो में चिकित्सा हुई किंतु उसका कोई लाभ नहीं हुआ. 25 अगस्त 2008 को पाकिस्तान में उनका निधन हो गया।'
मेरा कलाम अमानत है मेरे लोगों की / मेरा कलाम अदालत मेरे ज़मीर की है.' अहमद फ़राज़ के इन शब्दों के साथ उन्हें भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक नज़्म- शैलेश जैदी]
अब किसका जश्न मनाते हो
अब किसका जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किसका गीत सुनाते ही उस तन का जो दो नीम हुआ
उस ख्वाब का जो रेज़ा-रेज़ा उन आंखों की तकदीर हुआ
उस नाम का जो टुकडा-टुकडा गलियों में बे-तौकीर हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिटटी का जिसकी क़िस्मत मंसूब अदू के नाम हुई
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख्म का जो सीने में न था उस जान का जो वारी भी नहीं
उस खून का जो बदकिस्मत था राहों में बहा या तन में रहा
उस फूल का जो बे-कीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
उस मशरिक का जिसको तुमने नेजे की अनी मरहम समझा
उस मगरिब का जिसको तुमने जितना भी लूटा कम समझा
उन मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोजां रातें कीं
या उन मजलूमों का जिनसे खंजर की ज़बां में बातें कीं
उस मरयम का जिसकी इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो कातिल है और शामिल है ग़म-ख्वारों में
उन नौहगरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
उन भूके नंगे ढांचों का जो रक्स सरे-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज्ज़कों का जो भेस बदल कर वार करें
या उन झूठे इक्रारों का जो आज तलक ईफा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुःख का निशाना हुए
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नंगे-वतन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में
आंखों में छुपाया अश्कों को होंटों में वफ़ा के बोल लिए
इस जश्न में मैं भी शामिल हूँ नौहों से भरा कशकोल लिए
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अब किसका जश्न मनाते हो
अब किसका जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किसका गीत सुनाते ही उस तन का जो दो नीम हुआ
उस ख्वाब का जो रेज़ा-रेज़ा उन आंखों की तकदीर हुआ
उस नाम का जो टुकडा-टुकडा गलियों में बे-तौकीर हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिटटी का जिसकी क़िस्मत मंसूब अदू के नाम हुई
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख्म का जो सीने में न था उस जान का जो वारी भी नहीं
उस खून का जो बदकिस्मत था राहों में बहा या तन में रहा
उस फूल का जो बे-कीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
उस मशरिक का जिसको तुमने नेजे की अनी मरहम समझा
उस मगरिब का जिसको तुमने जितना भी लूटा कम समझा
उन मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोजां रातें कीं
या उन मजलूमों का जिनसे खंजर की ज़बां में बातें कीं
उस मरयम का जिसकी इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो कातिल है और शामिल है ग़म-ख्वारों में
उन नौहगरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
उन भूके नंगे ढांचों का जो रक्स सरे-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज्ज़कों का जो भेस बदल कर वार करें
या उन झूठे इक्रारों का जो आज तलक ईफा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुःख का निशाना हुए
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नंगे-वतन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में
आंखों में छुपाया अश्कों को होंटों में वफ़ा के बोल लिए
इस जश्न में मैं भी शामिल हूँ नौहों से भरा कशकोल लिए