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शनिवार, 30 अगस्त 2008

याद आयेंगे ज़माने को / फ़ारिग़ बुखारी

याद आयेंगे ज़माने को मिसालों के लिए
जैसे बोसीदा किताबें हों हवालों के लिए
देख यूँ वक़्त की दहलीज़ से टकरा के न गिर
रास्ते बंद नहीं सोचने वालों के लिए
आओ तामीर करें अपनी वफ़ा का माबुद
हम न मस्जिद के लिए हैं न शिवालों के लिए
सालहा-साल अक़ीदत से खुली रहती है
मुनफ़रिद रास्तों की गोद, जियालों के लिए
रात का कर्ब है गुल्बांगे-सहर का खलिक़
प्यार का गीत है ये दर्द, उजालों के लिए
शबे-फुरक़त में सुलगती हुई यादों के सिवा
और क्या रक्खा है हम चाहने वालों के लिए
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