जिन में लपक हो शोलों की वो फूल अब कहाँ
बेकार ज़ाया करते हो तुम रोज़ो-शब कहाँ
इस दौर का खुलूस भी है मस्लेहत-शनास
मिलते हैं लोग रोज़, मगर बे-सबब कहाँ
उन्वाने-फ़िक्र आज है दहशतगरों का ज़ह्र
कुछ भी पता नहीं कि ये फैलेगा कब, कहाँ
अब चाँदनी का हुस्न भी सबके लिए नहीं
गुरबत की ठोकरों में है हुस्ने-तलब कहाँ
हर साज़ तेज़-गाम, हर आवाज़ तेज़-रव
ठहराव आज मक़्सदे-बज़्मे-तरब कहाँ
कच्चे मकानों में भी न बाक़ी बचा खुलूस
वो सादगी, वो प्यार, वो जीने के ढब कहाँ
सैराब पहले से हैं जो दरिया उन्हीं का है
साहिल तक आ सकेंगे कभी तशना-लब कहाँ
क्यों तुमको साया-दार दरख्तों की है तलाश
इस दौरे-बे-अदब में मिलेगा अदब कहाँ
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रविवार, 24 अगस्त 2008
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