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मंगलवार, 19 अगस्त 2008

इस्लाम की समझ / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1.7]


इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दुखद स्थिति यह है कि सुन्नी शीआ दोनों ही मुस्लिम सम्प्रदायों के धर्माचार्य, राजनीति को दीन से पृथक कर के देखने के पक्ष में नहीं हैं. दोनों की ही राजनीतिक वैचारिकता नबीश्री के निधनोपरांत खलीफा के पद पर केंद्रित है. सुन्नी सम्प्रदाय के धर्माचार्य जहाँ हज़रत अबूबकर (र.), हज़रत उमर (र.) और हज़रत उस्मान (र.) ही को नहीं बाद के उमैया खलीफाओं को भी इसका अधिकारी मानने के पक्ष में हैं, वहीं शीआ सम्प्रदाय के धर्माचार्य नबीश्री के बाद चारित्रिक गुणों और नबीश्री से नैकट्य के आधार पर हज़रत अली (र,) तथा नबीश्री की बेटी फ़ातिमा की सुयोग्य संतानों को ही, जिन्हें वे इमाम मानते हैं, इस पद का अधिकारी समझते हैं. सुन्नी सम्प्रदाय के लगभग सभी आचार्य नबीश्री की उन संतानों को जिन्हें इमामत का पद प्राप्त था हर दृष्टि से श्रेष्ठ और आदरणीय स्वीकार करते हैं किंतु उन्हें खिलाफत के लिए उपयुक्त नहीं समझते.
इस्लामी इतिहास का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने से एक बात स्पष्ट रूप से दिखायी देती है कि नबीश्री के जीवन काल में और उसके बाद भी कुरैश के क़बीलों की राजनीति बनी हाशिम का वर्चस्व किसी भी दृष्टि से स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थी. नबीश्री ने जब भी और जिस अवसर पर भी बनी हाशिम के किसी सुयोग्य व्यक्ति की प्रशंसा की या उसकी श्रेष्ठता रेखांकित की, वे सहाबा जिनका सम्बन्ध कुरैश के दूसरे क़बीलों से था, उन्हें यह प्रशंसा बिल्कुल अच्छी नहीं लगी.उदहारणस्वरूप मैं यहाँ कुछ तथ्य रखना चाहूँगा.
1. यह कि जब उहद में नबीश्री के चचा हज़रत हमज़ा (र.) शहीद हुए और नबीश्री उनकी जनाजे की नमाज़ पढने के पश्चात उन्हें दफ़्न कर चुके तो नबीश्री ने दुआ की "ऐ मेरे रब ! ये वो हैं जिनके ईमान की पराकाष्ठा पर होने की मैं गवाही देता हूँ. हज़रत अबू बक्र (र.) को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने तत्काल प्रश्न किया "या रसूल अल्लाह क्या हम उनकी तरह नहीं हैं ? जिस प्रकार उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया, हम ने भी स्वीकार किया और जिस प्रकार उन्होंने जिहाद किया हमने भी किया ? नबीश्री ने यह नहीं कहा कि तुम लोग तो इसी युद्ध में मुझे अकेला छोड़ कर अपनी जानें बचाने के चक्कर में भाग गए. नबीश्री ने उत्तर दिया "क्यों नहीं, किंतु मैं नहीं जानता कि तुम लोग मेरे बाद क्या अहदास (दीन में कुछ घटाना-बढ़ाना या फेर-बदल करना) करोगे. (इमाम मालिक, मुवत्ता, किताबुलजिहाद, पृ0173 तथा शेख अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी, जज़बकुलूब, बाब 13, पृ0 176)
2. यह कि हज़रत अब्दुल मुत्तलिब (र.) के निधनोपरांत नबीश्री के पालन-पोषण का सारा भार हज़रत अबू तालिब इब्न अब्दुल मुत्तलिब (र.) ने उठाया और वे नबीश्री को, जो आयु की दृष्टि से उस समय कुल आठ वर्ष के थे, अपने बच्चों से भी अधिक प्रिय रखते थे. उन्होंने मक्के के मुशरिकों की धमकियों की कोई चिंता नहीं की और अन्तिम साँस तक नबीश्री की सुरक्षा के लिए समर्पित रहे. इस्लाम में नातगोई (नबीश्री की प्रशस्ति में लिखी गई कवितायेँ) का शुभारम्भ हज़रत अबू तालिब की कविताओं से माना जाता है. उनका यह शेर जो सीरत इब्ने हुश्शाम में भी दर्ज है (भाग 1, पृ0 276) नबीश्री को अत्यधिक प्रिय था और वे अक्सर सहाबियों से इसे सुनाने की फरमाइश करते थे."वह गोरे-चिट्टे मुखडे वाला जिसके आकर्षक मुखमंडल के माध्यम से वृष्टि के बादलों की दुआएं मांगी जाती है, वह अनाथों का सहारा है, विधवाओं और दरिद्रों की सुरक्षा का दुर्ग है, बनी हाशिम के वो लोग जो दयनीय स्थिति में हैं जब समय पड़ता है तो उसकी ओर दौड़ते हैं और उससे शरण लेते हैं और उसकी देख-रेख में सम्पन्न और श्रेष्ठ हो जाते हैं." अबुलफिदा ने अपनी तारीख में अबू तालिब के अनेक शेर उद्धृत किए हैं (भाग 1, पृ0 107) जिनमें से एक शेर द्रष्टव्य है." ऐ मुहम्मद ! तुमने मुझे दीन इस्लाम की ओर आमंत्रित किया. तुम वास्तव में मत के सच्चे, सत्यवादी और अल्लाह के आदेशों की रक्षा करने वाले (अमानतदार) वास्तविक नबी हो. निस्संदेह मेरा विशवास है कि तुम्हारा दीन संसार के अन्य सभी दीनों से उत्तम है. खुदा की क़सम मैं जबतक जीवित हूँ, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता."
कुरैश के कबीले जब एक जुट होकर नबीश्री और अबू तालिब के साथ सारे तिजारती और सामजिक सम्बन्ध तोड़ बैठे तो अबू तालिब सभी बनू हाशिम को साथ लेकर अपनी घाटी में चले गए जहाँ तीन वर्षों तक भूके प्यासे रहकर भी सभी ने नबीश्री की रक्षा की. जब अबू तालिब का निधन हुआ तो नबीश्री ने उस वर्ष को दुःख और संताप का वर्ष घोषित किया. यह तमाम बातें ऐसी हैं जिनपर मुसलमानों में कोई मतभेद या विवाद नहीं है. फिरभी बनीहाशिम विरोधी कुरैश के अन्य क़बीलों ने हज़रत अबू तालिब के विरुद्ध प्रचार किया कि जीवन के अंत तक वे काफिर रहे और उन्होंने इस्लाम कभी स्वीकार नहीं किया. इस प्रचार के पीछे कुरैश की वह खीझ थी जो अबू तालिब के रहते नबीश्री का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायी और जिसने दिखा दिया कि हज़रत अबू तालिब (र.) की आँख बंद होते ही नबीश्री का मक्के में रहना दूभर हो गया. परिणाम यह हुआ कि बुखारी शरीफ में यहांतक लिख दिया गया कि नबीश्री की हदीस है कि हज़रत अबू तालिब का स्थान दोज़ख में है.
मुझे ऐसे स्थलों पर मुसलमानों की सोंच और उनकी अक्ल पर आश्चर्य भी होता है और दुःख भी. एक व्यक्ति जो मुहम्मद (स.) के इश्क में अपना सब कुछ लुटा दे उसे तो काफिर घोषित कर दिया जाय और दोज़ख का भागीदार बताया जाय और दूसरा व्यक्ति जिसने जगह-जगह मुहम्मद (स.) की राह में रोडे अटकाए हों, उसे ला इलाह इल्लल्लाह मुहमदन रसूलल्लाह के उच्चारण मात्र से, जन्नत में आरक्षण दे दिया जाय. यदि इस्लाम ऐसा ही होता तो न जाने कितने लोग इसे कबका खुदा हाफिज़ कह चुके होते. मैं यहाँ मुस्लिम धर्माचार्यों से जो हज़रत अबूतालिब के काफिर होने के पक्षधर हैं केवल इतना पूछना चाहूँगा कि वे कलमा पढ़कर कब मुसलमान हुए थे ? कम से कम वो दिन और तारीख तो उन्हें याद ही होगी. मुसलमानों को चाहिए था कि जिस प्रकार इस्लाम में अकीका, खतना, निकाह इत्यादि की औपचारिकताएं हैं उसी प्रकार कलमा पढने की भी एक औपचारिकता अनिवार्य रूप से रखते. कम-से-कम यह पता तो चलता कि किसने कब इस्लाम स्वीकार किया. यदि आज के मुसलमान कलमा पढ़ने की किसी औपचारिकता से गुज़रे बिना भी मुसलमान हैं, तो हज़रत अबू तालिब (र.) से कलमा पढ़वाने पर इतना ज़ोर क्यों है. इस वैचारिकता में बनी हाशिम के प्रति शत्रुता का भाव नहीं है तो और क्या है ? यदि हज़रत इब्राहीम की इस दुआ को कि "मेरे रब ! मेरी संतानों में से एक समूह को ऐसा रखना जो इस्लाम दीन पर कायम रहे, अल्ल्लाह ने स्वीकार किया, तो कम से कम उस समूह के ऐसे लोगों को, जो नबीश्री के प्रेम में अपने प्राणों को भी कुछ नहीं समझते थे, अपने जैसा क्यों समझा जाता है ? यदि हज़रत अबू तालिब हज़रत इब्राहीम की संतान थे, और यदि क्या निश्चित रूप से थे, तो उनके दीन की गवाही तो स्वयं श्रीप्रद कुरान से साबित हो गई. अन्यथा मुसलमान नबीश्री हज़रत इब्राहीम (अ.) की संतानों में वह समूह कहाँ तलाश करेंगे जो पहले से मुसलमान था.
मुस्लिम धर्माचार्यों की दृष्टि में ऐसी हदीसें बहुत महत्वपूर्ण और प्रमाणिक होती हैं जो विभिन्न स्रोतों से बार-बार दुहराई गई हों। रोचक बात यह है कि बुखारी शरीफ की हज़रत अबू तालिब (र।) के दोज़ख में होने की हदीस तो मुस्लिम धर्माचार्यों को इतनी पसंद आई कि वे उसे बार-बार उद्धृत करते रहे. किंतु उसी बुखारी शरीफ की एक दूसरी हदीस जो विभिन्न स्रोतों के माध्यम से तेरह स्थानों पर संदर्भित है मुस्लिम आचार्यों का ध्यान तक आकृष्ट नहीं करती. हदीस इस प्रकार है - "सचेत हो जाओ कि क़यामत में मेरी उम्मत के कुछ लोग लाये जायेंगे और फ़रिश्ते उनको दोज़ख की जानिब ले चलेंगे. मैं निवेदन करूँगा ऐ मेरे रब ये तो मेरे सहाबी हैं. पस उत्तर मिलेगा तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बाद इन्होंने दीन में क्या-क्या फेर-बदल (अहदास) किए. अन्य स्थलों पर यह भी लिखा गया है कि "ये उल्टे पाँव अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट गए या दीन से विमुख हो गए."स्पष्ट है कि दीन में फेर-बदल वही कर सकता है जो अधिकार-संपन्न हो यानी या तो खलीफा हो या धर्माचार्य हो. नबीश्री के सहाबियों में किसी के धर्माचार्य होने का कोई संकेत नहीं मिलता. फिर यह हदीस किन अधिकार सम्पन्न लोगों का संकेत करती है जो नबीश्री के सहाबी भी रह चुके हों, मुस्लिम धर्माचार्य इसपर विचार करने से कतराते हैं. ध्यान रहे कि इस हदीस में 'उम्मत के कुछ लोग' कहा गया है. अर्थात इन अधिकार-संपन्न सहाबियों की संख्या निश्चित रूप से दो से अधिक है.

3. तिरमिजी ने जामेतिर्मिज़ी में (अबवाबुल्मनाक़िब पृ0 535) जाबिर के हवाले से और मुहद्दिस देहलवी ने मदारिजुन्नबूवा में (रुक्न 4, बाब 11, पृ0 156) लिखा है कि ताइफ़ के घेराव के पश्चात नबीश्री ने एकांत में हज़रत अली (र.) से कुछ रहस्य की बातें कीं. कुरैश को यह अच्छा नहीं लगा. हज़रत उमर (र.) ने शिकायातन नबीश्री से कहा "या रसूलल्लाह ! क्या यह उचित है कि आप एकांत में अली (र.) से रहस्य की बातें करते हैं ? नबीश्री ने उत्तर दिया कि मैं एकांत में अली से रहस्य की बातें नहीं करता, बल्कि अल्लाह करता है. (मैं तो माध्यम मात्र हूँ.) शरहे मिश्कात शरीफ में मुहद्दिस देहलवी ने इतना और जोड़ दिया है कि "अली से रहस्य की बातें करने की शुरूआत मैं ने नहीं की बल्कि खुदा ने की." ऐसा ही उत्तर नबीश्री ने मुहजरीन को उस समय भी दिया था जब नबीश्री ने सब के मस्जिद में खुलने वाले दरवाज़े बंद करा दिए थे और इमाम अली (र.) का दरवाज़ा खुला रखने की इजाज़त दी थी. कुरैश का ख़याल था कि नबीश्री अली की मुहब्बत में पथ-भ्रष्ट हो गए हैं. नबीश्री ने कहा था कि दरवाज़े मैं ने नहीं अल्लाह ने बंद कराये हैं और श्रीप्रद कुरआन ने सूरए नज्म की प्रारंभिक आयतों में यह घोषित करके कि "(ईमान वालो) तुम्हारा स्वामी (नबी) पथ-भ्रष्ट नहीं हुआ है. वह तो उस समय तक मुंह भी नहीं खोलता जबतक अल्लाह का आदेश न हो." नबीश्री के कथन की पुष्टि की थी.
उदाहरण तो और भी बहुत से दिए जा सकते हैं किंतु उनकी आवश्यकता इस लिए नहीं है कि मेरे विचारों की पुष्टि हज़रत उमर (र।) के एक वक्तव्य से हो जाती है जो उन्होंने अब्दुल्लाह इब्ने-अब्बास को अपनी खिलाफत के दौर में दिया था. तारीखे-इब्ने-जरीर तबरी (भाग 5, पृ0 23-24) और तारीखे-कामिल इब्ने-असीर जज़री में (भाग 3, पृ0 24-25, वाकिआत सन् 23 हिज0) हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (र.) से रिवायत है कि "एक दिन मैं हज़रत उमर की गोष्ठी में पहुँच गया. उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ इब्ने-अब्बास ! क्या तुम जानते हो कि मुहम्मद सल्'अम के बाद किस बात ने बनू हाशिम को अमरे-खिलाफत से वंचित किया ? मैं ने उसका उत्तर देना मसलेहत के ख़िलाफ़ समझा और कहा कि यदि मैं नहीं जानता तो आप मुझे अवगत कराएँ. हज़रत उमर (र.) ने फरमाया कि क़ौम (कुरैश) ने इस बात को नापसंद किया कि नबूवत और खिलाफत दोनों बनू-हाशिम में जमा हों और तुम इसपर इतराते फिरो. इसलिए कुरैश ने यह पद अपने पास रखा." स्पष्ट है कि कुरैश के क़बीलों में बनी हाशिम के प्रति प्रारंभ से ही जो द्वेष और वैमनस्य था वह नबीश्री के निधनोपरांत पुरी तरह खुल कर सामने आ गया. ऐसी स्थिति में यह प्रश्न ही अर्थहीन है कि नबीश्री का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुसलमानों में कौन सुयोग्य था और कौन नहीं और खलीफा चुने जाने की प्रक्रिया दीन से सम्बद्ध थी या नहीं. कुरैश का एक मात्र उद्देश्य बनी-हाशिम का वर्चस्व समाप्त करना था और उन्होंने ऐसा ही किया.

यह बात भी विचारणीय है कि प्रथम तीन खलीफाओं के दौर में, जिनका सम्बन्ध क्रमशः कुरैश के क़बीलों बनी तैम, बनी अदी और बनी उमैया से था, बनी हाशिम का कोई भी व्यक्ति किसी पद पर नियुक्त नहीं किया गया. ऐसा दो ही स्थितियों में होने की संभावना है. एक यह कि बनी हाशिम ने सिरे से इन खलीफाओं की बैअत (आज्ञापालन का मौखिक अनुबंध) ही न की हो. दूसरे यह कि इन खलीफाओं की दृष्टि में बनी हाशिम विश्वसनीय न रहे हों या उनके प्रति इनके मन में कहीं गहरा द्वेष पल रहा हो. जो स्थिति भी रही हो इतना तो बिल्कुल स्पष्ट है कि कुरैश के मन में बनी हाशिम के प्रति कहीं न कहीं दूरियां और कटुताएं निश्चित रूप से थीं. आज के अधिकतर मुसलमान कुरैश के उन्हीं क़बीलों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह जानते हुए भी कि बनी हाशिम में विशेष रूप से हज़रत फातिमा की संतान हर दृष्टि से श्रेष्ठ है और उससे प्रेम नबीश्री की अनेक हदीसों के प्रकाश में मुसलामानों के लिए अनिवार्य भी है और लाभप्रद भी, व्यावहारिक स्तर पर उसका ज़िक्र करना भी पसंद नहीं करते.
मुसलमानों में श्रीप्रद कुरआन के बाद सबसे महत्वपूर्ण वह छे पुस्तकें मानी जाती हैं जिन्हें सहाहे-सित्ता अर्थात छे असत्य से मुक्त ग्रन्थ कहा जाता है. इनमें सहीह बुखारी को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाता है. यद्यपि शीआ धर्माचार्य इन पुस्तकों की बहुत सी हदीसें गैर प्रामाणिक मानते हैं फिर भी वे हदीसें जो श्रीप्रद कुरआन के किसी आदेश से नहीं टकरातीं और जिनमें नबीश्री की सुयोग्य सात्विक संतानों की प्रशस्ति और प्रशंसा है, उन्हें न केवल स्वीकार करते हैं अपितु बेझिझक उनके सन्दर्भ भी देते हैं. नबीश्री की एक हदीस ऐसी है जो इन छओ ग्रंथों में संदर्भित है और जिसे सुन्नी और शीआ दोनों ही प्रामाणिक मानते हैं. हदीस इस प्रकार है -"जाबिर बिन समूरा से रिवायत है कि मैं एक बार अपने पिता के साथ नबीश्री की सुहबत में था. मैं ने नबीश्री को कहते सुना "मेरे बाद बारह अमीर होंगे" जाबिर बिन समूरा ने यह भी कहा कि उसके आगे भी नबीश्री ने एक वाक्य कहा जो मैं नहीं सुन सका. मेरे पिता का कहना है कि उन्होंने कहा कि "वे सब कुरैश से होंगे." किसी-किसी ग्रन्थ में अमीर के स्थान पर खलीफा शब्द का भी प्रयोग किया गया है.
उक्त हदीस को लेकर मुस्लिम धर्माचार्यों में जितना विवाद है मुझे सहाहे-सित्ता की किसी हदीस पर इतना वाद-विवाद नहीं दिखायी दिया. एक बात पर सुन्नी शीआ दोनों ही धर्माचार्य एकमत हैं कि इन अमीरों या खलीफाओं में से अन्तिम अमीर या खलीफा नबीश्री की बेटी हज़रत फातिमा की संतान में से हज़रत इमाम मेहदी (र.) होंगे.
प्रख्यात सुन्नी धर्माचार्य अल-जुवायनी ने हदीसों के संग्रह फ़राइज़-अल-सिमतैन (पृ0 160) में इस प्रसंग में कुछ और महत्वपूर्ण सन्दर्भ जोड़े हैं. उन्होंने इब्ने-अब्बास से रिवायत की है कि नबीश्री ने फरमाया "निश्चित रूप से मेरे बाद मेरे खलीफा और मेरे सफीर बारह होंगे. उनमें से पहला मेरा भाई होगा और अन्तिम मेरा प्रपौत्र होगा"
नबीश्री से प्रश्न किया गया "ऐ अल्लाह के रसूल ! आपका भाई कौन है ? नबीश्री ने उत्तर दिया "अली इब्ने-अबी तालिब" फिर पूछा गया "और आपका प्रपौत्र कौन है ?" सम्मानित नबी ने उत्तर दिया " अल-महदी, जो इस पृथ्वी पर न्याय और समता स्थापित करेगा और क़सम है उस रब की जिसने मुझे एक सचेत करने वाला बनाया यदि क़यामत में एक दिन भी शेष रह जायेगा तो वह उस दिन को उस समय तक लंबा करता जायेगा जब तक वह मेरे प्रपौत्र महदी को भेज नहीं देगा. यह पृथ्वी उसके प्रकाश से ज्योतित दिखायी देगी और रूहुल्ल्लाह हज़रत ईसा इब्ने-मरयम उसके पीछे नमाज़ अदा करेंगे." इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि नबीश्री ने फरमाया कि ये बारह अमीर मेरे बाद अली, हसन हुसैन और नौ अल्लाह द्वारा पवित्र घोषित की गई सात्विक विभूतियाँ होंगी"
अल-जुवायनी ने यहीं पर यह भी लिखा है कि "खलीफा की संस्था के प्रबुद्ध आचार्यों की सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति रही है कि राजनीतिक दबाव के कारण वे इन रिवायतों को आम जनता से छुपाते रहे हैं। अधिकतर आचार्यों ने इन रिवायतों को उलझाव पैदा करने की दृष्टि से प्रस्तुत किया है। उन्होंने अनावश्यक अनुमानों के आधार पर इन रिवायतों में संदर्भित बारह खलीफाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है, जबकि नबीश्री ने स्पष्ट शब्दों में इनके नामों की घोषणा कर दी थी."

**************** क्रमशः

शनिवार, 26 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.5

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
श्रीप्रद कुरआन ने जबतक यह कहा कि 'आज्ञापालन करो अल्लाह का और आज्ञापालन करो उसके रसूल का' मुस्लिम धर्माचार्यों को इस्लामी सल्तनत का कोई आधार नहीं मिल सका. यह और बात है कि मक्के के मुशरिकों का अनुमान था कि हज़रत मुहम्मद (स.) दीन के माध्यम से अरब की सल्तनत स्थापित करना चाहते हैं. मुशरिकों के प्रतिनिधि अत्बा ने कुरैश को यह सुझाव भी दिया था कि 'मुहम्मद (स.) को उसके हाल पर छोड़ दो. यदि अरब वालों ने उसका अंत कर दिया तो तुम सस्ते छूट गए और यदि उसे आधिपत्य प्राप्त हुआ तो उसकी सल्तनत तुम्हारी सल्तनत होगी." इतना ही नहीं, आगे चलकर मक्का विजय के समय जब अब्बास इब्ने-अब्दुलमुत्तलिब (र.) अबूसुफियान को, जिसने दबाव में आकर अभी कुछ क्षणों पूर्व ही इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार किया था, इस्लामी सेना के संयमित पंक्तिबद्ध दस्तों का मुआइना करा रहे थे, उसके मुंह से अचानक निकल गया था, "ऐ अब्बास ! (र.) तुम्हारा भतीजा तो बड़ी सल्तनत वाला हो गया." अब्बास ने तत्काल उसके मुंह पर हाथ रख दिया और कहा "धिक्कार हो तुझ पर. यह सल्तनत नहीं नबूवत है."
बात स्पष्ट है कि मक्के के मुशरिकों को ही यह आभास नहीं था, नबीश्री (स.) के जीवन काल में ही, मुसलामानों के बीच यह मानसिकता विकसित हो चुकी थी कि नबूवत का उद्देश्य इस्लामी हुकूमत स्थापित करना है. वस्तुतः यही वह बीज-बिन्दु है जिसने नबीश्री (स.) के निधनोपरांत अल्लाह के प्रिय दीन इस्लाम को, सुन्नी और शीआ जैसे दो बड़े समूहों में विभाजित करके, मज़हब में तब्दील कर दिया. और यही वह स्थल है जहाँ से इस्लाम में ‘हिकमत’ के स्थान पर राजनीति ने प्रवेश किया.
श्रीप्रद कुरआन में मुसलमानों को जब आदेश हुआ "या अयियुहल्लज़ीन आमनू अतीउल्लाह व अतीउर्रसूल व ऊलिल'अम्रि मिन्कुम" तो यद्यपि अनेक सहाबियों ने जिज्ञासावश इस आयत का वास्तविक अर्थ नबीश्री से मालूम कर लिया था, किंतु सत्ता लोलुप मुसलमानों ने, इस अर्थ को दबाकर, इसका अर्थ इस प्रकार करना प्रारंभ किया 'ऐ ईमान वालो ! अल्लाह का आदेश मानो और रसूल का आदेश मानो और उनका जो तुम में साहिबे-हुकूमत (शासक) हैं.''ऊलिल'अम्र' का ‘हुक्मरां’ या ‘शासक’ अर्थ करके मुसलमानों ने अपनी नीयत स्पष्ट कर दी. शासक तो भ्रष्ट-से-भ्रष्ट व्यक्ति भी हो सकता है. फिर अल्लाह उसके आदेशों का पालन करने के लिए ईमान वालों को क्यों आदेशित करेगा. यदि ऐसा ही था तो नबियों द्बारा मार्ग-दर्शन की आवश्यकता ही क्या थी. शीआ समुदाय ने आयत का अर्थ और उसकी व्याख्या यद्यपि पर्याप्त सीमा तक सही की, किंतु व्यवहार में वह भी, नबीश्री (स.) के सर्वप्रिय सहाबी इमाम अली (र.) में ही सही, सांसारिक सत्ता देखने के पक्षधर हैं.
ऊलिल'अम्र का अर्थ शब्द कोशों में तलाश करने से ही मेरी दृष्टि में यह ज़िदें पैदा हुईं. श्रीप्रद कुरआन में जहाँ-जहाँ 'अम्र' शब्द का प्रयोग हुआ है एक दृष्टि उसपर अवश्य कर लेनी चाहिए. जहाँ तक हुकूमत और सल्तनत का प्रश्न है श्रीप्रद कुरआन ने साफ़ शब्दों में घोषित कर दिया है"इनिल हुक्मु इल्लल्लाहि" (12/40). अर्थात अल्लाह के सिवा किसी की हुकूमत नहीं है.
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है "युदब्बिरुल'अम्र मिनस्समाइ इलल'अर्ज़ि" (32/5). अर्थात वह आकाश से धरती तक आदेशों की व्यवस्था करता है. यहाँ अम्र का अनुवाद कार्य भी किया गया है. किंतु यदि अम्र का अनुवाद कार्य किया जाय तो 'अल-अम्र' होने के कारण उन कार्यों की विशिष्टता रेखांकित होती है. और यह विशिष्टता अल्लाह से सम्बद्ध है. यानी यह कार्य सामान्य, रोज़मर्रा के या हमारे प्रशासनिक कार्य नहीं हैं. एक अन्य आयत में कहा गया है "यतनज़्ज़लुल'अमरु बैनहुन्न" (65/12) अर्थात उनके बीच (धरती और आकाश के बीच) उसके 'आदेश' (अम्र) उतरते रहते हैं. ऊपर की आयत को इस आयत से मिलाकर देखा जाय तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह धरती और आकाश के बीच कार्यों की नहीं, अपने आदेशों की व्यवस्था करता है जिसके नतीजे में सारे कार्य संपन्न होते हैं. किंतु यही 'अम्र' शब्द जब श्रीप्रद कुरआन में अल्लाह के किसी प्रिय गुण से संपन्न व्यक्तियों के लिए या किसी नबी के सन्दर्भ में आता है तो इससे अभिप्राय उसके कार्य ही होते हैं. उदाहरणस्वरूप श्रीप्रद कुरआन में सात्विक (मुत्तकी) व्यक्तियों के सन्दर्भ में कहा गया है "व मयींयत्तक़िल्लाह यज'अल्लहू मिन अम्रिही युस्रन" (65/4). अर्थात जो अल्लाह के लिए तक़वा रखते हैं (सात्विकता बनाए रखते हैं), अल्लाह उनके कार्यों में सहूलत पैदा कर देता है. एक अन्य स्थल पर हज़रत लूत (अ.) के सन्दर्भ में कहा गया "व क़ज़यना इलैहि ज़ालिकल अम्र" अर्थात ‘और हमने उसके (हज़रत लूत (अ.) के) कार्यों/मामले में अपना निर्णय उसकी ओर भेजा.'
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि 'ऊलिल अम्र' का अनुवाद ‘शासक’ अथवा ‘हुक्मरां’ करना तर्क-संगत नहीं है. फिर श्रीप्रद कुरआन की इस आयत को यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो और भी तथ्य सामने आते हैं. आज्ञापालन के आदेश तीन हैं.अल्लाह का आज्ञा पालन,रसूल का आज्ञा पालन और ऊलिल अम्र का आज्ञा पालन. किंतु अल्लाह को पृथक् श्रेणी में रखा गया है और रसूल तथा ऊलिल अम्र को पृथक् किंतु एक ही श्रेणी में रखकर आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है. रसूल के गुणों से ऊलिल अम्र के गुण यदि कुछ भी भिन्न होते तो उसके लिए पृथक रूप से 'अतीऊ' (आज्ञा पालन करो) शब्द प्रयुक्त होता. ज़ाहिर है कि यह विभाजन गुणों के आधार पर है. जो गुण अल्लाह के हैं वह निश्चित रूप से रसूल और ऊलिल अम्र के नहीं हैं. किंतु रसूल (स.) और ऊलिल अम्र के गुणों में समानता है. इसलिए इनके प्रसंग में आज्ञा पालन का आदेश एक साथ हुआ है.यह ऐसा ही है जैसे आप अपने किसी अधिकारी और सहयोगियों को घर पर निमंत्रित करने के लिए कहें 'सर ! आप आज शाम को घर पर पधारने की कृपा करें और आप और आप और आप भी पधारें. इस वाक्य में एक निमंत्रण तो अधिकारी के लिए विशिष्ट है दूसरे निमंत्रण में तीन लोग शामिल हैं जो गुण और पद की दृष्टि से समान हैं. स्पष्ट यह हुआ कि ऊलिल अम्र में वैसे ही गुण होने चाहियें जो नबीश्री (स.) में हैं और अल्लाह को और उसके रसूल को भी वह उसी प्रकार प्रिय हो जिस प्रकार नबीश्री (स.) अल्लाह को प्रिय हैं, अन्यथा अल्लाह उसकी आज्ञा पालन का आदेश ही क्यों देगा.
नबीश्री के भेजे जाने का उद्देश्य यदि इस्लामी सल्तनत स्थापित करना होता और श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री के कामों में इसकी गणना की गई होती, तो ऊलिल अम्र का भी यह दायित्व होता कि वह इस्लामी हुकूमत की व्यवस्था करे. नबीश्री के निधनोपरांत कुछ गिने-चुने सहाबियों द्वारा खलीफा का निर्वाचित किया जाना एक राजनीतिक व्यवस्था की शुरूआत तो कही जा सकती है, किंतु इस प्रक्रिया को दीन से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. मैं बार-बार यह दुहराना पसंद करूँगा कि नबीश्री जीवन-पर्यंत 'हिकमत' से काम लेते रहे, 'राजनीति' से नहीं. ऊलिल अम्र को उसके चारित्रिक गुणों,अल्लाह और रसूल से उसके नैकट्य,सद्कर्मों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और सच्चाइयों पर डटे रहने के जीवट के आधार पर पहचाना जा सकता है, खलीफा जैसे किसी सांसारिक पद के आधार पर नहीं. सांसारिक पद मैं इसलिए कह रहा हूँ कि श्रीप्रद कुरआन में जहाँ यह पद सांसारिक नहीं है, मुझे ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ किसी क़ौम ने अपने लिए खलीफा का निर्वाचन किया हो. खलीफा अल्लाह का प्रतिनिधि होता है और अल्लाह को ही अपना प्रतिनधि चुनने का अधिकार भी है. खलीफा का निर्वाचन करके नबीश्री के कुछ सहाबियों ने यह साबित कर दिया कि यह पद अल्लाह प्रदत्त न होकर जनता प्रदत्त है. और जनता प्रदत्त पदों को दीन से नहीं जोड़ा जा सकता.
नबीश्री ने अपने रिश्तेदारों और सहाबियों के बीच में अपनी बातचीत में जहाँ भी खलीफा शब्द का प्रयोग किया है वह 'वसी,' 'वज़ीर,''नाइब,' 'वली' आदि अर्थों में किया है. रिसालत और नबूवत नबीश्री पर समाप्त हो गई.और जब यह पद ही समाप्त हो गया फिर उत्तराधिकार का क्या प्रश्न. वैसे भी नबूवत और रिसालत का कोई स्थानापन्न नहीं हो सकता.नबी अल्लाह की खबरें उसके बन्दों तक पहुंचाता है और रसूल अल्लाह के संदेशों से अवगत कराता है. हज़रत मुहम्मद (स.) का अन्तिम नबी होना इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि मानव जाति तक अल्लाह की सभी खबरें और सभी संदेश पहुँच चुके. वसी, वजीर, नाइब, वली इत्यादि शब्द सहयोगी के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, शासक या हुक्मरां के अर्थ में नहीं. वजीर वह होता है जो दायित्व के बोझ को हल्का करे.
हज़रत मूसा (अ.) ने अल्लाह से प्रार्थना की "वज'अल्ली वज़ीरम्मिन अहली. हारून अखी" (श्रीप्रद कुरआन,20/29-30) अर्थात (मेरे रब) मेरे 'अह्ल' (अल्लाह की दृष्टि में सद्कर्म करने वाला सुयोग्य पात्र) में से एक को मेरा वज़ीर नियुक्त कर. मेरे भाई हारुन को.' यहाँ श्रीप्रद कुरआन के अनेक व्याख्याताओं ने 'अहली' शब्द का अनुवाद 'मेरे घर वाले' या 'मेरे परिवार वाले' किया है, जो उचित नहीं है. अपनी बात की पुष्टि में मैं श्रीप्रद कुरआन से हज़रत नूह (अ.) का उद्धरण देना चाहूँगा. प्रलय आने पर जब हज़रत नूह (अ.) का बेटा पिता के कहने पर भी कश्ती पर नहीं बैठा और पानी में डूबने लगा तो हज़रत नूह (अ.) ने अल्लाह से प्रार्थना की " व नादा नूहुंर्रब्बहू फ़क़ाल रब्बि इन्न अब्नी मिन अहली" (11/45). अर्थात 'और नूह ने अपने रब को पुकारा और कहा ऐ मेरे रब ! यह मेरा बेटा है और मेरा अह्ल है.' नूह (अ.) को अल्लाह का उत्तर मिला "या नूहु लैस मिन अह्लिक इन्नहू अमलुन गैरु सालिहिन." (11/46).अर्थात 'नूह वह तेरे अह्ल में से नहीं है. वह सदाचारी नहीं है." यहाँ बेटा होने का खंडन नहीं किया गया किंतु अहल होना स्वीकार नहीं किया गया और तर्क यह दिया गया कि उसके (नूह (स.) के बेटे के) कर्म सालिह नहीं हैं अर्थात भ्रष्ट हैं. स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी व्यक्ति केवल घर का होने के आधार पर अल्लाह की दृष्टि में ‘अह्ल’ नहीं है. अह्ल होने के लिए उसका सदाचारी होना अनिवार्य शर्त है. सदाचारी शब्द का प्रयोग मैं यहाँ 'अमलि-सालिह; अर्थात नेक कर्म या सद्कर्म करने वाले के अर्थ में कर रहा हूँ.
यहाँ मैं एक और प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा जिसके सन्दर्भ सुन्नी और शीआ समुदाय की प्रामाणिक पुस्तकों में साधारण से अन्तर के साथ समान रूप से उपलब्ध हैं. सन 09 हिजरी में जब श्रीप्रद कुरआन की सूरः बराअत का अवतरण हुआ, तो नबीश्री ने सूरः की आयतों को लेकर, हज के अवसर पर हज़रत अबूबक्र (र.) को मक्का जाने का आदेश दिया. किंतु उसके बाद ही नबीश्री को अल्लाह का संदेश प्राप्त हुआ कि आप उन्हें वापस बुला लीजिये और इन आयतों को लेकर या तो आप स्वयं जायिए या अपने किसी ‘अह्ल’ को भेजिए. अल्लाह के इस संदेश के बाद नबीश्री ने इमाम अली (र.) को आदेश दिया कि वे हज़रत अबू बक्र (र.) से सूरः बराअत लेकर मक्के तशरीफ़ ले जाएँ और हाजियों के समक्ष उसकी प्रस्तुति स्वयं करें. स्पष्ट है कि अल्लाह की दृष्टि में हज़रत अबू बक्र (र.) नबीश्री के ‘अह्ल’ नहीं थे और हज़रत अली (र.) नबीश्री के भाई या दामाद होने के कारण नहीं भेजे गए बल्कि वे इसलिए भेजे गए कि वे नबीश्री के अह्ल थे और आमालि सालिह (सद्कर्म) की तराजू पर वे ही ऐसे थे जो नबीश्री का स्थान ले सकते थे. श्रीप्रद कुरआन ने ऐसी ही विभूतियों के लिए ‘ऊलिल अम्र’ शब्द का प्रयोग किया है।
ऊपर मैंने यह लिखा है कि नबीश्री (स.) ने अपने रिश्तेदारों और सहाबियों के बीच जब भी खलीफा शब्द का प्रयोग किया है उसका अर्थ कहीं भी हुक्मरान या शासक नहीं है. मैं जानता हूँ कि मेरी यह अवधारण सुन्नी और शीआ समुदायों के अनेक धर्माचार्यों को अच्छी नहीं लगेगी. किंतु मेरी दृष्टि में तथ्य यही है. मैं यहाँ दावते-ज़ुल-अशीरा का सन्दर्भ देना चाहूँगा.यह सन्दर्भ सुन्नी समुदाय की अनेक प्रामाणिक पुस्तकों में उपलब्ध है जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है.1. शेख अलाउद्दीन अली बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अल-बग्दादीकृत लुबाबुत्तावील फी म'आलिमुत्तन्जील जो तफसीरे-खाज़िन बगदादी के नाम से प्रसिद्ध है 2.अबीबक्र इब्नल्हुसैन अल-इमाम अल-हाफिज़ अली अल-बैहकीकृत दलाइलुन्नबूवह 3.इब्ने जरीर तबरीकृत तारीखुर्रसुल वल-मुलूक 4. इब्ने असीर जज़रीकृत तारीखे-कामिल 5. सुयूतीकृत जमउल जवामे इत्यादि.
प्रारम्भ में तीन वर्षों तक नबीश्री ने गोपनीय रूप से इस्लाम का प्रचार किया. किंतु इसके बाद जब श्रीप्रद कुरआन की यह आयत उतरी कि 'अपने निकट सम्बन्धियों को अल्लाह के अजाब से डराओ’ तो नबीश्री ने बनीहाशिम को खाने पर निमंत्रित किया जिसमें चालीस लोग आए. यद्यपि भोजन देखने में बहुत कम था पर अल्ल्लाह की कृपा से सभी ने सेर होकर खाया. भोजनोपरांत जब नबीश्री ने कुछ कहना चाहा तो अबूलहब ने उनकी बात प्रारम्भ होने से पहले सबकुछ मजाक में उड़ा दिया. दूसरे दिन फिर उन लोगों को निमंत्रित किया गया. आज वे लोग पहले की अपेक्षा कुछ नर्म थे. इसलिए नबीश्री को अपनी बातें कहने का अवसर मिल गया. नबीश्री ने कहा "ऐ बनी अब्दुल्मुत्तलिब ! मैं तुम्हारे पास कुछ लोक परलोक की नेकियाँ लाया हूँ. और अल्लाह ने मुझे इस बात के लिए आदेशित किया है कि मैं तुम्हें उसकी ओर बुलाऊं. तुम में से जो भी मेरा सहयोग देगा वह मेरा भाई, मेरा वसी और मेरा खलीफा होगा. नबीश्री ने तीन बार अपना यह वाक्य दुहराया किंतु तीनों बार अली (र.) के अतिरिक्त कोई भी तैयार नहीं हुआ. अंत में नबीश्री ने सभी को संबोधित करके कहा कि ऐ लोगो ! अली (र.) मेरा भाई, मेरा वसी और मेरा खलीफा है. तुम इसके आदेश सुनोगे और इसकी अता'अत (आज्ञा पालन) करोगे. लोगों ने यह सुनकर ठहाका लगाया और अबूलहब ने इमाम अली (र.) के पिता और नबीश्री के संरक्षक हज़रत अबूतालिब (र.) पर चोट की 'लो तुम्हें आदेश दिया गया है कि तुम अपने बेटे के आदेशों का पालन करो."
ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रारंभिक दिनों की बात है जब कुछ गिनती के लोगों ने ही इस्लाम दीन स्वीकार किया था. उस समय न कोई सत्ता थी, न कोई फौज थी न कोई प्रशासन. ऐसी स्थिति में खलीफा का अर्थ हुक्मरान या शासक किस प्रकार किया जा सकता है. स्पष्ट है कि यहाँ खलीफा का अर्थ सहयोगी, सहकर्मी या आज की शब्दावली में स्पोक्समैन से है. शासक हुकमरान या उत्तराधिकारी से नहीं.
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सोमवार, 14 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.4

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं

इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार करके संतुष्ट हो जाना पर्याप्त नहीं है. उसपर जीवन के अंत तक कायम रहना अनिवार्य है. नबीश्री हज़रत इब्राहीम (अ.) एक प्रतिष्ठित और सम्मानित नबी हैं.श्रीप्रद कुरआन के प्रकाश में वैसे तो नबीश्री हज़रत आदम (अ.) के समय से ही इस्लाम दीन के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था किंतु यह श्रेय हज़रत इब्राहीम को प्राप्त है कि उन्होंने इसका खुल कर प्रचार-प्रसार किया. 'उनसे जब परम सत्ता ने कहा इस्लाम स्वीकार करो, तो उन्होंने निवेदन किया मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के 'रब' के समक्ष नत मस्तक हूँ' (इज़ क़ाल लहू रब्बुहू अस्लिम. क़ाल अस्लम्तु लिरब्बिल आलमीन 2/131). हज़रत इब्राहीम (अ.) का 'रब' को समर्पित होना तो नबी होने के रिश्ते से पहले से ही स्पष्ट था. किंतु नबी के लिए उसकी अभिव्यक्ति भी ज़रूरी थी. फिर इतना ही नहीं, वे और उनके बेटे हज़रत इस्माईल (अ.) काबे की दीवार ऊंची करते समय मन-ही-मन अल्लाह से दुआ करते हैं 'ऐ हमारे रब ! हमें अपने नज़दीक मुस्लिम स्वीकार कर और हमारी संतति में से भी एक समुदाय ऐसा रखना जो तेरे नज़दीक मुस्लिम हो.' ( रब्बना वज्'अल्ना मुस्लिमैनि ल'क व् मिन ज़ुर्रीयतिना उम्मतम-मुस्लिमतंल्लक. 2/128) साथ-ही-साथ श्रीप्रद कुरआन ने यह भी बताया "और इसी की वसीयत इब्राहीम (अ.) ने अपने बेटों और याकूब (अ.) ने अपने बेटों को की - ऐ बेटा अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन पसंद किया है. जब संसार से उठना तो मुसलमान रहकर ही. ( व् वस्सा बिहा इब्राहीमु बनीहि व् याकूबु, या बनैयि इन्नल्लाहस्तफ़ा लकुमुद्दीन फ़ला तमू तुन्न इल्ला व् अन्तुम मुस्लिमून. 2/132). अन्तिम आयत से स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमान के लिए आख़िरी साँस तक दीन पर क़ायम रहना ज़रूरी है.
ध्यान देने की बात यह है कि इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद प्रत्येक मुसलमान के लिए अनिवार्य हो जाता है कि वह अल्लाह के आदेशों और नबीश्री के पद-चिह्नों का आजीवन पालन करता रहे. श्रीप्रद कुरआन ने अनेक आयतों के माध्यम से इसका स्पष्टीकरण किया है. कहीं पर कहा गया 'अतीउल्लाह वर्रसूल' अर्थात अल्लाह और रसूल के आदेशों का पालन करो (3/32),या"वमइं युतिइल्लाह वरसूलहू युदखिलहु जन्नातिन"अर्थात जो व्यक्ति अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों क पालन करेगा, अल्लाह उसे जन्नत में दाखिल करेगा (4/13) या "मइंयुतिइर्रसूल फ़क़द अताअल्लाह" अर्थात जिसने रसूल के आदेशों का पालन किया उसने अल्ल्लाह के आदेशों का पालन किया (4/80) इत्यादि. कहीं बताया गया "कुल इन्कुंतुम तुहिब्बूनल्लाह फ़त्तबिऊनी युहबिब्कुमुल्लाहू" अर्थात ऐ रसूल ! कह दो की यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरे पदचिह्नों पर चलो, अल्लाह तुम्हें दोस्त रखेगा.(3/31).
उपर्युक्त आयतों में कई बातें विचारणीय हैं. 1. अल्लाह की इताअत (आदेशों का पालन) करो और उसके रसूल की इताअत करो. 2. रसूल के आदेशों का पालन अल्लाह की इताअत से भिन्न नहीं है. 3. रसूल की इत्तिबा (पदचिह्नों पर चलना), अल्लाह से प्रेम का मूल-मन्त्र है.
पता यह चला की इताअत तो अल्लाह और उसके रसूल की करना है किंतु इत्तिबा केवल रसूल की करना है. कारण यह है कि अल्लाह के पद-चिह्न तो हैं नहीं जिनके पीछे चला जाय.दूसरी बात यह है कि रसूल के आदेश भले ही वह उनकी ज़बान से निकले हों वास्तव में अल्लाह के आदेश ही हैं. श्रीप्रद कुरआन ने तो कहा भी है "मा ज़ल्ल साहिबुकुम व् मा गवा व्'मा यंतिकु अनिल हवा इन हुव इल्ला वह्युन्यूहा" अर्थात ऐ मुसलमानों "तुम्हारा साहब (नबीश्री हज़रत मुहम्मद स.) न तो भटका हुआ है और न ही वह अपनी इच्छा से कुछ कहता है. वह कुछ भी नहीं बोलता बिना वही के इशारे के" (53/2-3). 'वही' अल्लाह के उन आदेशों को कहते हैं जो जिब्रील के माध्यम से नबीश्री (स) तक पहुंचते हैं.
अब यदि कोई व्यक्ति नबीश्री की अवज्ञा करता है तो सही अर्थों में वह अपने ईमान की कमजोरी व्यक्त करता है और उसकी अवज्ञा नबीश्री की ही नहीं अल्लाह की भी अवज्ञा है. आजकी बात जाने दीजिये. स्वयं नबीश्री के ज़माने में अनेक आदरणीय सहाबियों ने नबीश्री की अवज्ञा की. यह और बात है कि नबीश्री के स्वभाव में घृणा और क्रोध के लिए कोई स्थान नहीं था. नबीश्री के क्रोध की अभिव्यक्ति का बस इतना ही उल्लेख मिलता है कि ऐसे अवसरों पर उनका चेहरा बिल्कुल लाल हो जाता था. वे ज़बान से कुछ नहीं कहते थे. यह सच है कि नबीश्री के सभी सहाबी (साथ उठने-बैठने वाले) हमारे लिए आदरणीय हैं, किंतु यह भी सच है कि सभी सहाबी हमारे लिए अनुकरणीय नहीं हो सकते. सहाबियों की अवज्ञा के उदाहरण प्रामाणिक मुस्लिम इतिहास में भरे पड़े हैं, किंतु मैं यहाँ कुछ-एक उदाहरण ही देना चाहूँगा.
1. पहला उदाहरण 'उहद' की लड़ाई का है. इस लड़ाई में मक्के के मुशरिकों ने भरपूर तैयारी के साथ आक्रमण किया था जिसमें मुसलामानों ने उनका सामना उहद के मैदान में किया. इस युद्ध में इमाम अली (र.), हज़रत हम्ज़ा (र.), हज़रत मिक़दाद बिन असवद (र.), हज़रत जुबैर बिन अवाम और हज़रत अबू दज्जाना ने जब शत्रुओं को दूर तक खदेड़ दिया तो मुसलमान, शत्रुओं का छोड़ा हुआ माल लूटने में व्यस्त हो गए. तीरंदाजों का वह दस्ता जिसे पहाड़ के दर्रे पर नबीश्री (स.) ने इस आदेश के साथ तयनात किया था कि वे किसी भी स्थिति में उस स्थान को न छोडें, वे भी माल पर टूट पड़े. शत्रु सेना को अवसर मिल गया और उसने पीछे से मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया. कुछ गिने चुने सहाबी तो इस अवसर पर भी डटे रहे किंतु अधिकतर सहाबी जान बचाकर, नबीश्री को अकेला छोड़कर भाग गए. नामी मुस्लिम योद्धाओं के शहीद हो जाने पर भी हज़रत अली (र.) अंत तक मोर्चे पर डटे रहे और उन्होंने नबीश्री की जो ज़ख्मी हो गए थे मरहम पट्टी भी की. प्रामाणिक मुस्लिम इतिहासकार तबरी ने लिखा है कि नबीश्री के " सहाबी भाग कर इधर उधर बिखर गए, कुछ मदीने में चले गए और कुछ पहाड़ की चट्टान पर जाकर टिक गए. नबीश्री ऊंची आवाज़ से पुकारने लगे लोगों को बुलाते हुए कि "इलैय इबादिल्लाह, इलैय इबादिल्लाह"ऐ अल्लाह के बन्दों ! मेरी ओर आओ, मेरी ओर, किंतु किसी ने नहीं सुना" (तबरी भाग 3, पृ0 20 ). श्रीप्रद कुरआन ने इस घटना को सूरः आलि इमरान की 152वीं आयत में इस प्रकार बयान किया है- "याद करो जब तुम भागे चले जा रहे थे. किसी की ओर पलटकर देखने का होश भी तुम में नहीं था और तुम्हारा रसूल तुम्हारे पीछे तुमको पुकार रहा था."
मुस्लिम इतिहासकारों ने लड़ाई से नबीश्री की अवज्ञा करते हुए भागने वाले सहाबियों की सूची नहीं दी है. किंतु कुछ प्रमुख सहाबियों के नाम गिनाये अवश्य हैं. हाकिम नेशापूरी ने मुस्तदरक में (भाग 3, पृ0 27) और शाह वलीउल्लाह दिहल्वी ने कुर्तुल ऐनैन में (पृ0 14) लिखा है कि "जब उहद की लड़ाई में प्रतिष्ठित रसूल के सहाबी उनको अकेला छोड़कर इधर-उधर बिखर गए तो हज़रत आयशा (र.) के मतानुसार हज़रत अबूबकर (र.) ने फरमाया कि उनमें से सबसे पहले मैं रसूलल्लाह की खिदमत में वापस आया." तफसीरे-कबीर में (मिस्र, भाग 3, पृ0 74) अल्लामा फखरुद्दीन राज़ी और तारीखे-कामिल में (मिस्र, भाग 2, ज़ातुत्तःरीर, पृ0 60) इब्ने-असीर जज़री लिखते हैं "भागने वालों में हज़रत उमर (र.) भी थे किंतु वह बहुत दूर नहीं गए. बल्कि पहाडी पर ही सुरक्षित स्थान पर रुके रहे. हाँ हज़रत उस्मान (स.) जो साद और अकबा के साथ दूर तक भाग गए थे, तीन दिन बाद तशरीफ़ लाये." अब इससे क्या अन्तर पड़ता है कि कौन पहले लौटा और कौन बाद में. अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा तो सभी ने की.
इस प्रसंग में प्रख्यात मुस्लिम विद्वान् हज़रत अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी ने मदारिजुन्नबूवः में (भाग 2, पृ0 267) एक और विचारणीय बात लिखी है. वे लिखते हैं "इस अवसर पर नबीश्री ने हज़रत अली (र.) से प्रश्न किया तुम भी दूसरों की तरह क्यों नहीं चले गए ? हज़रत अली (र.) ने उत्तर में कहा क्या मैं ईमान लाने के बाद कुफ्र की तरफ़ पलट जाता." यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि नबीश्री (स.) हज़रत अली (र.) की बात सुन कर चुप रह गए. नबीश्री (स.) का किसी बात पर सामान्य स्थिति बनाए रखते हुए चुप रहना, मुसलमानों की दृष्टि में तथ्यतः उस बात की स्वीकृति है.
2. दूसरा उदाहरण हुदैबिया की संधि का है. सन 06 हिजरी/ 628 ई0 में नबीश्री 1400 सहाबियों के साथ हज करने के विचार से मक्के के लिए निकले. वहाँ के मुशरिकों द्बारा अवरोध उत्पन्न किए जाने और खून-खराबे की संभावनाएं होने की सूचना पाकर नबीश्री ने मक्के से नौ मील पहले हुदैबिया के स्थान पर पड़ाव डाला. नबीश्री ने हज़रत उमर (र.) को मक्का जाकर यह बताने का आदेश दिया कि हम लोग कोई लड़ाई-झगडा नहीं चाहते. केवल हज की नीयत से निकले हैं और हज करके तत्काल वापस लौट जायेंगे. हज़रत उमर (र.) ने जाने में संकोच व्यक्त किया और हज़रत उस्मान (र.) को भेजने का सुझाव इस तर्क के साथ दिया कि मक्के के कुरैश उन्हें प्रिय रखते हैं और उनके कबीले वाले भी मक्के में अधिक हैं. हज़रत उस्मान (र.) मक्के गए और जब उन्हें लौटने में विलंब हुआ तो तरह-तरह की शंकाएँ व्यक्त की जाने लगीं. नबीश्री ने (जिन्हें उहद में मुसलमानों द्वारा मैदान छोड़ कर भाग जाने का अनुभव हो चुका था), अपने साथियों को एक वृक्ष के नीचे एकत्र करके उनसे युद्ध होने की स्थिति में जान बचाकर न भागने का वचन लिया.यह सूचना संभवतः मक्के वालों तक पहुँच गई. फलस्वरूप मक्के के कुरैश ने सुहैल बिन अम्र को इस आशय से भेजा कि हम भी युद्ध करने के पक्ष में नहीं हैं. आप हमारी समझौते की शर्तें मान लीजिये और इस वर्ष बिना हज किए लौट जाइए, अगले वर्ष आप हज कर सकते हैं किंतु तीन दिन से अधिक मक्के में नहीं रुकेंगे. हमारा कोई साथी यदि मदीने चला जाय तो आपको उसे लौटाना होगा,किंतु मदीने से यदि कोई मुस्लमान मक्के आता है तो हम उसे वापस नहीं लौटायेंगे. नबीश्री (स.)ने सारी शर्तें स्वीकार कर लीं. नबीश्री (स.) के सहाबियों ने, विशेष रूप से हज़रत उमर (र.) ने इस में मुसलामानों के अपमान की गंध महसूस की और नबीश्री (स.) से सवाल-जवाब भी किया (सहीह बुखारी, भाग 2, पृ0 141). मदारिजुन्नुबूवः में अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी ने (भाग 2, प्री0 436) लिखा है कि फरमाया हज़रत उमर (र.) ने कि हमें नबूवत पर जैसा संदेह आज हुआ, इससे पहले कभी नहीं हुआ.इतना ही नहीं संधि के बाद नबीश्री ने मुसलामानों को कुर्बानी करने और सर मुंडवाने का तीन-तीन बार आदेश दिया किंतु किसी ने हिलने का नाम तक नहीं लिया. मुसलमानों को इस प्रकार अवज्ञा करते देखकर नबीश्री को बहुत दुःख हुआ.
3. तीसरा उदाहरण उस समय का है जब अन्तिम हज से लौटकर नबीश्री (स.) ने अपने आजाद किए हुए गुलाम जैद बिन हारिस के बेटे ओसामा के नेतृत्त्व में हज़रत अली (र.) को छोड़ कर अन्य सभी सहाबियों को रूम की मुहिम में जाने का आदेश दिया. शेख अब्दुल हक मुहद्दिस दिहल्वी इस सम्बन्ध में लिखते हैं "हज़रत (नाबीश्री स.) की तरफ़ से आदेश हुआ कि बड़े-बड़े मुहाजिर और अंसार जैसे अबूबक्र सिद्दीक, उमर फारूक, उस्मान ज़ुल्क़र्नैन,साद बिन अबी वक्कास और अबू उबैदा बिन जर्राह इत्यादि सब इस सेना में ओसामा के साथ जाएँ, अली-ए-मुर्तुजा को छोड़कर, जिन्हें उनके साथ नहीं भेजा. यह बात कुछ लोगों को बहुत बुरी लगी कि एक गुलाम को मुहाजिर व् अंसार का सरदार बना दिया और उन लोगों के समूह में इसपर टीका-टिप्पणी होने लगी.हज़रत (नबीश्री स.) को जब इसकी सूचना मिली तो वे अत्यधिक दुखी हुए. मेंबर पर जाकर उन्होंने मुसलमानों से कहा 'ऐ लोगो ! यह क्या है कि मेरे बनाये हुए सेना के अमीर (सरदार) ओसामा का तुम सब विरोध कर रहे हो. इसी प्रकार उनके पिता के नेतृत्त्व का भी तुम लोगों ने विरोध किया था. खुदा की क़सम यही सेना की सरदारी का पद पाने के योग्य हैं और इनके पिता भी सरदारी के लिए योग्य थे." (मदारिजुन्नुबूवः, भाग 2, पृ0 766).
4. चौथा उदाहरण नबीश्री (स.) के जीवन के अन्तिम दिनों का है जब उन्होंने बीमारी की अवस्था में कलम और दावात माँगा ताकि मुसलामानों के लिए ऐसी वसीयत लिख दें कि भविष्य में मुसलमान पथ भ्रष्ट न हों. किंतु उपस्थित मुसलामानों ने नबीश्री (स.) के आदेश का पालन नहीं किया. इस घटना का उल्लेख बुखारी शरीफ, सहीह मुस्लिम, मसनद अहमद इब्ने हम्बल के अतिरिक्त तबरानी और शहरिस्तानी के यहाँ भी है. इनमें से कुछ पुस्तकों में यह भी बताया गया है कि हज़रत उमर (र.) ने इस अवसर पर यह भी कहा कि नबीश्री (स.) बीमारी की हालत में हिज़ियान बक रहे हैं. हमें किसी वसीयत की जरूरत नहीं है. हमारे लिए अल्लाह की किताब काफ़ी है.
उपर्युक्त उदाहरणों से इतना स्पष्ट हो जाता है कि नबीश्री के अनेक ऐसे सहाबी जिन्हें मुस्लिम जगत प्रतिष्ठित, सम्मानित, आदर्श और अनुकरणीय समझता है, नबीश्री के आदेशों की अवज्ञा के भागीदार थे. श्रीप्रद कुरान ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि दो-एक बार की अवज्ञा क्षम्य है. श्रीप्रद कुरान के अनुसार अवज्ञा करने वालों के सारे कर्म अकारथ चले जाते हैं और वे न्याय के दिन पछताते हैं. किंतु यह केवल एक पहलू है. देखने की बात यह है कि ऐसा क्यों किया गया. मुझे अपने अध्ययन से पर्याप्त सोच-विचार के बाद ऐसा लगता है कि नबीश्री के अनेक सहाबियों ने इस्लाम को दीन के रूप में अपने राजनीतिक उद्देश्यों से स्वीकार किया था. उनके लिए दीन की आत्मा इश्के-इलाही या इश्के-रसूल नहीं थी. उनके लिए यह भी चिंता का विषय नहीं था कि वे तक़वा (प्रत्येक छोटे-बड़े पाप से दूर रहना) पर कायम रहें. आगे चलकर शाम और बग़दाद के अनेक खलीफाओं ने जो रास्ता अख्तियार किया,उससे सभी परिचित हैं. आज अधिकतर मुसलामानों को विरासत में यही आदर्श मिले हैं. फलस्वरूप इस्लाम की पहचान आज दूसरे धर्मों के लोग,श्रीप्रद कुरआन, नबीश्री का सम्मानित चरित्र, उनकी संतानों के चरित्र तथा सूफियों और वलियों के चरित्र के प्रकाश में नहीं कर रहे हैं. यह अतीत की बातें हो चुकी हैं. आज इस्लाम की पहचान उन धर्माचार्यों के माध्यम से हो रही है जो आए दिन भांत-भांत के फतवे दे रहे हैं.जिनका लक्ष्य इस्लामी सल्तनत और इस्लामी हुकूमत स्थापित करना है. इन धर्माचार्यों की मुस्लिम समुदाय के चरित्र निर्माण में कोई रूचि नहीं है. मेरी दृष्टि में आजके मुस्लिम धर्माचार्यों का जो लक्ष्य है वो किसी नबी रसूल या इमाम का लक्ष्य नहीं था.
****************************क्रमशः