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शनिवार, 23 अगस्त 2008

आग की भाषा / शैलेश ज़ैदी

हवाओं से एक दिन मैं ने पूछा
गोदामों में भरा
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का ढेर सारा सामान
देश के संविधान से अलग
विधायकों और सांसदों का
एक अपना संविधान.
दफ़्तरों में बाबुओं से लेकर अधिकारियों तक
नित्य पढी जाने वाली नोटों की गीता
क्या तुम्हें यह सब कुछ कचोटता नहीं ?

हवाएं पहले तो मुस्कुरा दीं
फिर गंभीर स्वर में बोलीं
तुम्हारे भीतर आग बहुत अधिक है
आग बने रहने से तुम्हें कोई रोकता नहीं
पर आग से कोई मैत्री नहीं रखता.

इस देश के लोग हवा बांधते हैं
हवा पीते हैं
हवा के रुख पर चलते हैं
हवा जीते हैं
और अंत में हवा हो जाते हैं

आग को हवा देना
सब कुछ जला देना है
आग में कोई आस्वादन नहीं होता
तेज तो होता है
पर संतुलित जीवन का
प्रशांत स्पंदन नहीं होता

भीतर की आग ने मुझसे कहा
हवाएं होती हैं बहरूपिया
जब और जैसा होता है सत्ता का चेहरा
हवाएं पहन लेती हैं उसी के अनुरूप मुखौटा

आग को तेज़ करो
हवाएं गर्म हो जायेंगी
और बोलने लगेंगी आग की भाषा .
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[वाराणसी 1978]

काफ़िर / शैलेश ज़ैदी

मेरी बेटी मुडेरों को रौशन दियों से सजाती रही
मेरा बेटा पटाखों की आवाज़ पर
क़ह्क़हों से मुझे गुदगुदाता रहा.
मेरी पत्नी
अनारों के रंगीन फूलों की मुस्कान पर
मुग्ध होती रही
और मेरे पड़ोसी मुसलमान
मुझको
मेरे बच्चों को
मेरी पत्नी को
काफिर समझते रहे
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[अलीगढ़ 1976]

मैं मुसलमान हूँ / शैलेश ज़ैदी

मैं मुसलमान हूँ
पर उसी देश की मैं भी संतान हूँ
आँख खोली है तुमने जहाँ

तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
ईंट-गारे की दीवारें
'अल्लाहो-अकबर' के नारे लगातीं नहीं
शंख की गूँज हो
या अजानों की आवाज़ हो
घर की दीवारों पर
इनके जादू का होता नहीं कुछ असर

मेरे घर में किताबों के कमरे में
कुरआन के साथ गीता भी रक्खी हुई है
और हदीसों की जिल्दों के पहलू में
वेदान्त के भाष्य भी हैं

तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
मैं मुसलमान हूँ !
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[अलीगढ़/1965]