हवाएं मेरे पक्ष में नहीं हैं
यह जानते हुए भी मैं आगे बढ़ रहा हूँ
निरंतर आगे बढ़ रहा हूँ
कंटीली झाडियाँ हवाओं के साथ हैं
वे चाहती हैं कि मेरे शरीर पर खरोंच आ जाय.
मेरे पैरों में कांटे चुभ जाएँ
मेरी गति धीमी पड़ जाय
मैं वहाँ न पहुँच सकूँ
जहाँ कुछ लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
हवाएं झाडियों के साथ
कानाफूसी कर रही हैं
मैं एक-एक शब्द सुनते हुए भी
आगे बढ़ रहा हूँ
मुझे विशवास है अपने पैरों पर
अपने संकल्प पर.
मैं वहाँ ज़रूर पहोंचूंगा
जहाँ कुछ लीग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
लेकिन मैं अगर वहाँ पहोंच गया
और लोग वहाँ नहीं मिले
तब ?
मैंने उनके पैरों के निशान तलाश किए
और निशान नहीं मिले
तब ?
मैंने उन्हें आवाजें दीं
और उत्तर नहीं मिला
तब ?
मैं तब भी आगे बढूंगा
अपने निशान छोड़ता हुआ
अपनी आवाजें बिखेरता हुआ
दरख्त की एक-एक टहनी से
अपनी बात कहता हुआ.
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समकालीन कविता / शैलेश ज़ैदी / मैं तब भी आगे बढूंगा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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रविवार, 24 अगस्त 2008
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