सामने एक बनती इमारत का टुकडा
पीछे अपनी गहनता में स्थिर
पहाड़ और तेज़ आंधी !
अब मुझे हरियाली दूब पर टिकी
ओस की बूँद के बने रहने की अनिवार्यता
महसूस नहीं होती.
क्योंकि जहाँ मैं तैर रहा हूँ
वह एक अंतहीन समुद्र है
और चारों तरफ़
बड़ी-बड़ी मछलियों का समूह
तो क्या मैं सारे इरादों को
सतह हो जाने दूँ ?
सच तो यह है कि हम
उन तमाम गैर-ज़रूरी क्षणों को
जीना भी अनिवार्य समझते हैं
जो हमारी पतली हथेलियों को
कभी का बीच से चीर गए हैं.
यह कैसे हो सकता है कि आदमी
अपनी परछाईं से भाग जाए
और घोषित कर दे युद्ध का अंत ?
जबकि सन्नाटों में लटकी हुई
प्रतिकूल आवाजें अब भी दमदार हैं
और हम सिर्फ़ अपने बहरे होने की
कीमत चुका रहे हैं.
सब कुछ करने की क्षमता होने पर भी
सब कुछ सहे जा रहे हैं.
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[दिल्ली 1980]
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शनिवार, 23 अगस्त 2008
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