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गुरुवार, 28 अगस्त 2008

हो के बेघर जा रहे थे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

हो के बेघर जा रहे थे रेगज़ारों में कहीं
मैं भी था उन कारावानों की क़तारों में कहीं
वो तो कहिये साथ उसका था कि साहिल मिल गया
कश्तियाँ बचती हैं ऐसे तेज़ धारों में कहीं
देर तक मैं आसमां को एक टक तकता रहा
सोच कर शायद वो शामिल हो सितारों में कहीं
उसपे जो भी गुज़रे वो हर हाल में रहता है खुश
उसके जैसे लोग भी हैं इन दयारों में कहीं
ये भी मुमकिन है वो आया हो अयादत के लिए
क्या अजब शामिल हो वो भी ग़म-गुसारों में कहीं
घर से जब निकला बजाहिर वो बहोत खुश-हालथा
लौटने पर ख़ुद को छोड़ आया गुबारों में कहीं

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