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गुरुवार, 21 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 5]

[28]
गुरु बिनु ऐसी कौन करै.
माला तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै..
भव सागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै..
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छीन मैं लै उधरै..


मुर्शिद बगैर ऐसी इनायत करेगा कौन
माला, तिलक, लिबासे-दिलावेज़ बख्श कर
रखते हैं सर पे छत्र ये रहमत करेगा कौन
दरियाए-इश्के-दुनिया में डूबे अगर कोई
हाथों में दे के दीप हिफाज़त करेगा कौन
मुर्शिद हमारे क़ादिरे-मुतलक़ हैं 'सूर' श्याम
बेडा वो पार करते हैं इक प् में सुब्हो-शाम..
[29]
जा दिन संत पाहुने आवत
तीरथ कोटि समान करै फल, जैसे दरसन पावत..
नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै, चरन कमल चित लावत..
मन वच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत औ सुमिरावत..
मिथ्या वाद उपाधि रहित ह्वै, विमल-विमल जस गावत..
बंधन कर्म कठिन जे पहिले, सौऊ काटि बहावत..
संगत रहैं साधू की अनुदिन, भव-दुःख दूरि नसावत..
'सूरदास' संगति करि तिनकी, जे हरि सुरति करावत..


वली-उल्लाह जिस दिन सूरते-मेहमान आता है.
करोड़ों तीर्थ का फल एक पल में बख्श जाता है.
जगाता है दिलों में ज़िक्रे-हक़ से नित नई उल्फ़त.
अमल से, क़ौल से दिल से, खुदा से लौ लगाता है.
सभी झूठे तिलिस्मों से सदा आज़ाद रहता है.
फ़क़त पाकीज़ा औसाफे-इलाही गुनगुनाता है.
वो सब दुश्वारियां पहले जो सद्दे-राह होती थीं.
उन्हें वो दूर करके जिंदगी आसां बनाता है
ज़रूरी है करें संगत सदा हम पीरे-कामिल की
जहाँ के रंजो-गम दुःख-दर्द सब कुछ वो मिटाता है.
तुझे लाजिम है कर ले 'सूर' संगत ऐसे रहबर की
जो अपने फैज़ से दीदारे-हक़ तुझ को कराता है..
[30]
अब कै राखि लेहु भगवान..
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम डरिया, पारधि साधे बान..
ता कै डर जो भजत चहत मैं, ऊपर ढुक्यो सुचान..
दुहूँ भांति दुःख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान..
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूट्यो संधान..
'सूरदास' सर लग्यो सचानहि, जे जे कृपानिधान..


इस मर्तबा बचा लें मुझे आप या खुदा
शाखे-शजर पे बैठा हूँ मैं इक यतीम सा
सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा
डर से मैं उसके, उड़ने की ख्वाहिश अगर करूँ.
ऊपर है बाज़ ताक में परवाज़ भर रहा
दोनों तरफ़ से मुझ पे मुसीबत है आ पड़ी.
है कौन जो बचाए मेरी जान बरमला
करते ही याद साँप ने सैयाद को डसा.
घबराया ऐसा, हाथ से नावक निकल पड़ा
जाकर वो सीधे बाज़ के सीने में धंस गया..
है 'सूर' सब करम उसी परवरदिगार का..
[31]
रे मन जनम अकारथ खोइसि..
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि..
निसि दिन फिरत रहत मुंह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि..
गोड़ पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कह होइसि..
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि देखि मुख रोइसि..
'सूर' स्याम बिनु कौन छुडावै, चले जाव भई पोइसि..


ऐ दिल गंवाई तूने अबस अपनी ज़िन्दगी.
बस पेट भर के खाता रहा तू तमाम उम्र
भूले से भी हरी से मुहब्बत कभी न की..
लालच में तू भटकता रहा यूँ ही रात दिन.
तेरे गुरूर ने तेरी खिल्क़त बिगाड़ दी
फैला के दोनों पांवों को गफ़लत में है पड़ा
ख़ुद ही बता कि हो गई हालत ये क्या तेरी..
अब जां पे आ बनी है, तेरे सामने है मौत..
तू देख-देख कर उसे रोता है हर घड़ी..
ऐ 'सूर' मगफिरत है कहाँ श्याम के बगैर..
बस वो ही अब निजात दिलाएं तो हो खुशी.
[32]
जा दिन मन पंछी उडि जैहै...
ता दिन तेरे तन तरुवर के, सबै पात झाड़ जैहै..
घर के कहें बेग ही काढौ, भूत भए कोउ खैहै..
जा प्रीतम सों प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरैहै ..
कहँ वह ताल कहाँ वह सोभा, देखत धूरि उडैहै..
भाई-बन्धु अरु कुटुंब कबीला, सुमिरि सुमिरि पछितैहै..
बिनु गोपाल कोउ नहिं अपनों, जस अपजस रह जैहै..
सो सुख 'सूर' जो दुर्लभ देवन, सत संगति में पैहै..


जिस घड़ी तायरे-अनफास करेगा परवाज़
पत्ता-पत्ता शजरे-जिस्म का झड़ जायेगा
घर के लोगों का बयाँ होगा कि ले जाओ शिताब
बन के शैतान किसी को ये निगल जायेगा..
दिलरुबा जान के रखता था जिसे जां से अज़ीज़
देख कर वो भी तुझे खौफ से थर्रायेगा
न तो होंगे वो तमाशे न वो जलवे होंगे.
हर तरफ़ एक गुबार उड़ता नज़र आएगा
भाई-बंद और तेरा कुनबा-क़बीला हर दम
याद कर कर के तुझे खूब ही पछतायेगा
सिर्फ़ गोपाल ही अपने हैं, पराये हैं सभी
बाक़ी रह जायेगी इस दुनिया में नेकीओ-बदी
देवताओं को मयस्सर नहीं जो कैफों-सुरूर.
सोहबते-नेक में ऐ 'सूर' उसे पायेगा.
[33]
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल..
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल. .
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सब्द रसाल..
भरम भरयो मन भयो पखावज, चलत कुसंगत चाल..
तृष्ना नाद करत घट भीतर, नाना विधि दै ताल..
माया कौ करि फेंटा बाँध्यौ, लोभ तिलक दियो भाल..
कोटिक कला कांछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल..
'सूरदास' की सबै अबिद्या, दूर करहु नंदलाल..


अब बहोत नाच चुका मैं गोपाल..
ख्वाहिशे-नफस वो गुस्से का है चोगा तन पर
है गले में हविसे-दुनिया की तस्बीहे-ज़वाल
हिर्स घुँघरू की तरह बजता है, गीबत है मिठास
क़ल्ब है वह्म से लबरेज़ पखावज की मिसाल
चलता रहता है जो बेमेल सी बेकार सी चाल
जिस्म में गूंजती रहती है तमा की आवाज़..
मुख्तलिफ तरह से देती हुई बदरंग सी ताल..
पारचा जहल का बांधे हूँ कमर में कस कर..
और पेशानी पे लालच के तिलक का है गुलाल..
स्वांग सौ तर्ह के भरता हूँ मैं दुनिया के लिए.
गुम हूँ इस तर्ह कि होती नहीं कुछ फ़िक्रे-विसाल..
'सूरदास' आपका है कैदे-जहालत में असीर.
कीजे आज़ाद उसे अपने करम से नंदलाल .
[34]
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान..
छूटि गए कैसे जन जीवत, ज्यों पानी बिन प्रान..
जैसे मगन नाद सुनि नारंग, बधत बधिक तनु बान..
ज्यों चितवै शशि और चकोरी, देखत ही सुख मान..
जैसे कमल होत परिफुल्लित, देखत दर्शन भान..
'सूरदास' प्रभु हरि गुन मीठे, नित प्रति सुनियत कान..


आपकी भक्ती हमारी जिंदगी.
जां-बलब है आप से छुट कर जहाँ में हर कोई.
सुन के बाजे की सदा मस्ती में आता है हिरन
छेदता है तीर से सैयाद उसका जिस्मो-तन.
देख कर महताब को होता है खुश जैसे चकोर.
जैसे खिलता है कँवल पाकर झलक खुर्शीद की..
'सूरदास' औसाफे-शीरीं हरि के सुनने के लिए .
गोश बार आवाज़ हो जाते हैं रोज़ाना सभी
[35]
जो सुख होत गुपालहिं गाये.
सो नहीं होत जप तप के कीने, कोटिक तीरथ न्हाए..
दिये लेत नहिं चारि पदारथ, चरन कमल चित लाये..
तीन लोक तृन सम करी लेखात, नन्द नंदन उर आए..
बंशी-बट, बृंदाबन यमुना, तजि बैकुंठ को जाए..
'सूरदास' हरि को सुमिरन करि, बहुरि न भव चलि आए..


खुशी होती है जो गोपाल की मद्हो-सना गा कर.
मयस्सर हो नहीं सकती वो जप-तप की रियाज़त में..
जियारत-गाहों पर जा जा के हौजों में नहा कर..
कमल जैसे मुक़द्दस पाँव की उलफत हो गर दिल में..
बशर कौनैन की दौलत को भी तिनका समझता है..
कोई नेमत कभी लेने पे आमादा नहीं होता
भुला कर ब्रिन्दाबन को प्यारी जमना और मुरली को
करेगा क्या भला कोई वहां फिरदौ में जा कर
हरी का ज़िक्रे-पाकीज़ा किया कर 'सूर' तू दिल से
कि फिर वापस तुझे आना न हो दुनिया के अन्दर
************************** क्रमशः

बुधवार, 13 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4]

[ 22 ]
हरी बिन अपनौ को संसार.
माया-लोभ-मोह हैं चांडे, काल-नदी की धार..
ज्यौं जन संगति होति नाव मैं, रहति न परसैं पार..
तैसैं धन-दारा, सुख-संपति, बिछुरत लगै न बार..
मानुष जनम, नाम नरहरि कौ, मिलै न बारम्बार..
इहिं तन छन-भंगुर के कारन, गरबत कहा गंवार..
जैसैं अंधौ अंधकूप मैं, गनत न खाल पनार..
तैसेहिं 'सूर' बहुत उपदेसैं, सुनि सुनि गे कै बार..


अपना नहीं जहान में कोई बजुज़ खुदा
हिर्सो-हवस का, लज़्ज़ते-दुनिया का सिल्सिला
जूए-अजल की धार का जैसे हो काफ़ला
कश्ती में जैसे होते हैं हमराह कितने लोग
साहिल पे आके साथ सभी का है छूटता
वैसे ही मालो-ज़ौजओ-आसाइशे-जहाँ
इक पल में सब बिछड़ते हैं आती है जब क़ज़ा
इंसान की हयात वो नामे-खुदाए-पाक
मिलते नहीं किसी को भी दुनिया में बारहा
इस जिस्मे-आरज़ी पे न बद-अक़्ल कर गुरूर
नादान जान ले इसे हासिल नहीं बक़ा
नाबीना जैसे कूएँ में ज़ुल्मत के क़ैद हो
रहता नहीं नशेब का जैसे उसे पता
वैसे ही 'सूर' सुनके भी आला नसीहतें
गिरते हैं ख़न्दकों में अंधेरों की बेहया
[ 23 ].
सब तजि भजिये नंदकुमार.
और भजे तैं काम सरै नहिं, मिटे न भव जनजार..
जिहिं जिहिं जोनि जनम धारयौ,बहु जोरयौ अध कौ भार
तिहिं काटन कौ समरथ हरि कौ, तीछन नाम कुठार..
वेद पुरान भागवत गीता, सब कौ यह मत सार..
भव समुद्र हरिपद नौका बिनु, कोऊ न उतरै पार..
यह जिय जानि इहीं छिन भजि, दिन बीतत जात असार..
'सूर' पाई यह समय लाहू लहि, दुर्लभ फिरि संसार..


सब को तज कर मालिके-कुल की इबादत कीजिये.
नन्द के बेटे की लीलाओं से उल्फ़त कीजिये..
और माबूदों से बन सकता नहीं कोई भी काम
घेरे रक्खेंगी जहाँ भर की बलाएं सुब्हो-शाम..
जिस किसी खिलक़त में जब जैसे जहाँ पैदा हुए
जोड़ते आये गुनाहों के हमेशा सिलसिले..
काटना है इन गुनाहों को तो कीजे एतबार..
काट सकती है इन्हें नामे-हरी की तेज़ धार..
भागवत गीता में, वेदों में, पुरानों में उसे
याद करते आये हैं हम सब इसी अंदाज़ से..
जो न हो हरि की मुहब्बत के सफीने पर सवार
बहरे-दुनिया कर नहीं सकता किसी सूरत से पार..
इस हकीकत को समझ कर कीजिये खालिक को याद..
बे इबादत के, गुज़र जाते हैं सब दिन बेमुराद..
मिल गया है 'सूर' मौक़ा कुछ उठा लें फ़ायदा..
फिर न होगा इस जहाँ की ज़िन्दगी से वास्ता..
[ 24 ]
जौ मन कबहुँक हरि कौ जांचै..
आन प्रसंग उपासन छाँडै, मन-वच-कर्म अपने उर सांचै..
निसि दिन स्याम सुमिरि जस गावै, कलपन मेटि प्रेम रस मांचै..
यह ब्रत धरे लोक मैं बिचरै, सम करी गिने महामनि कांचै..
सीत-ऊश्न, सुख-दुःख नहिं मानै, हानि-लाभ कछु सोंच न रांचै..
जाइ समाइ 'सूर' वा विधि मैं, बहुरि न उलटि जगत मैं नांचै..

परख ले दिल अगर ज़ाते-हरी को.
तो गैरों की इबादत तर्क कर के.
बने क़ौलो-अमल से, दिल से हक़-गो
रहे दिन-रात ज़िक्रे-श्याम लब पर
डुबो दे प्रेम रस में बेकली को..
जहाँ में घूमे गर ये अज़्म लेकर
तो समझे कांच को हीरे को यकसां
असर कुछ भी न सर्दो-गर्म का ले
किसी सूरत भी दुःख-सुख को न माने
नफ़ा होता हो, या होता हो नुक़सां
उभरने दे न हरगिज़ बद-दिली को..
समो दे 'सूर' ख़ुद को यूँ खुदा में
न झेले फिर जहाँ की बरहमी को..
[ 25 ]
झूठे ही लगि जनम गँवायौ.
भूल्यो कहा स्वपन के सुख मैं, हरि सौं चित न लगायौ..
कबहुँक बैठ्यो रहिस-रहिस कै, ढोटा गोद खिलायौ..
कबहुँक फूलि सभा मैं बैठ्यो, मूछनि ताव दिखायौ..
टेढी चाल, पाग सिर टेढी, टेढ़ैं टेढ़ैं धायौ..
'सूरदास' प्रभु क्यों नहिं चेतत, जब लगि काल न आयौ..

बरबाद कर दी झूठ में पड़कर ये ज़िन्दगी
गाफिल हुआ है पा के फ़क़त ख्वाब की खुशी..
खालिक़ से लौ लगाई नहीं एक पल कभी..
हो-हो के मस्त, बैठ के आसाइशों के साथ..
औलाद को खिलाता रहा गोद में कभी.
मगरूर बन के बैठा कभी महफ़िलों के बीच..
मूछों को अपनी ऐंठ के दिखलाई हेकडी
साफ़े को तिरछा बाँध के, बांकी बना के चाल.
भटका किया इधर से उधर थी वो कज-रवी..
ऐ 'सूर' ! इस से पहले कि आये पयामे-मौत..
क्यों होश में तू आता नहीं, क्यों है बे-दिली..
[ 26 ]
जैसैं राखहु तैसैं रहौं.
जानत हौं दुःख-सुख सब जन के, मुख करि कहा कहौं.
कबहुँक भोजन लहौं कृपानिधि, कबहुँक भूख सहौं..
कबहुँक चढ़ौं तुरंग महागज, कबहुँक भार बहौं..
कमल नयन, घनस्याम मनोहर, अनुचर भयौ रहौं..
'सूरदास' प्रभु ! भगत कृपानिधि, तुम्हारे चरण गहौं..

जैसे रखते हैं उसी हाल में रहता हूँ मैं.
आप दुःख-सुख से हैं बन्दों के बखूबी वाक़िफ़,
इसलिए कुछ भी ज़बां से नहीं कहता हूँ मैं..
कभी खाना जो मयस्सर हो तो खा लेता हूँ,
भूख का बोझ कभी हंस के उठा लेता हूँ..
घोडे-हाथी पे कभी बैठ के खुश होता हूँ.
कभी मजदूर की मानिंद वज़न ढोता हूँ..
चाहता हूँ कि रहूँ श्याम का खादिम बन कर
ज़िन्दगी 'सूर' हो बस श्याम के चरनों में बसर..
[ 27 ]
यह सब मेरियै आई कुमति..
अपनै ही अभिमान दोष दुःख, पावत हौं मैं अति..
जैसैं केहरि उझकि कूप जल, देखै आप परति..
कूद परयौ कछु भरम न जान्यौ, भई आइ सोई गति..
ज्यौं गज फटिक सिला मैं देखत, दसननि डारत हति..
जौ तू 'सूर' सुखहिं चाहत है, तौ क्यों बिषय बिरति..

ये तो मेरी ही बद-अक्लियों का,है नतीजा जिसे झेलता हूँ..
अपने पिन्दार की सब खता है, रंजो-गम में जो मैं मुब्तिला हूँ.
देख कर अपनी परछाईं जैसे, नासमझ शेर कूएँ में कूदे,
मेरी हालत भी है उसके जैसी, कुछ भी करता हूँ बे सोचे-समझे.
संगे बिल्लौर में अपनी सूरत, देख कर जैसे बदमस्त हाथी,
दांत से मारे टक्कर पे टक्कर, और हो जाए बे वज्ह ज़ख्मी
मैं भी ख़ुद अपनी नादानियों से, आये दिन चोट खाता हूँ गहरी..
चाहता है अगर 'सूर' खुशियाँ, वादियों से निकल आ हवस की.
**************************** क्रमशः