सारी नदियाँ पी जाता है ,फिर भी सागर प्यासा है
उसकी भाषा पढ़कर देखो, अक्षर-अक्षर प्यासा है
आसमान से चलकर दरिया तक आना आसान नहीं
रोज़ आता है पानी पीने चाँद, निरंतर प्यासा है.
ओस चाटकर कुछ तो प्यास बुझा लेते हैं फूल मगर
सुनो कभी संगीत जो उनका, एक-एक स्वर प्यासा है
दो जुन की रोटी तो जैसे-तैसे मिल भी जाती है
थोड़ा सा आदर पाने को, श्रमिक बराबर प्यासा है
मूल प्रश्न यह है आतंकी को विशवास दिया किसने ?
प्राण अगर जाएँ, स्वागत को, जन्नत का दर प्यासा है
केसरिया बाने को, केवल एक ही चिंता रहती है
मिले विधर्मी रक्त कहीं से, धर्म का गागर प्यासा है
कोई भी शैलेश तुम्हारी, आकर हत्या कर देगा
खरी-खरी बातों से, प्राणों का, हर विषधर प्यासा है.
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रविवार, 31 अगस्त 2008
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