शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

दिन ढल चुका था और.. / वज़ीर आगा

दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था।
सारा लहू बदन का रवां मुश्ते-पर में था।
हद्दे-उफ़क़ पे शाम थी खैमे में मुंतज़िर,
आंसू का इक पहाड़ सा हाइल नज़र में था।
जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।
लो वो भी नर्म रेत के टीले में ढल गया,
कल तक जो एक कोहे-गरां रहगुज़र में था।
पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकां में थी,
खिड़की में इक चराग भरी दोपहर में था।
उसका बदन था खून की हिद्दत से शोलावश,
सूरज का इक गुलाब सा तश्ते-सहर में था।
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3 टिप्‍पणियां:

अमिताभ मीत ने कहा…

क्या बात है.

पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकां में थी,
खिड़की में इक चराग भरी दोपहर में था।

सिर्फ़ ये शेर ही नहीं ... लकिन पूरी ग़ज़ल फिर से लिख दूँ क्या ?

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया!!!

जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।

Udan Tashtari ने कहा…

जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।


-बहुत उम्दा, क्या बात है!
आनन्द आ गया.