परिंदों की दरख्तों से हुई थी गुफ्तुगू क्या-क्या.
फ़िज़ा सरगोशियाँ करती रही कल चार सू क्या-क्या.
वो ताक़तवर हैं, नाज़ुक वक़्त है, दुश्मन हवाएं हैं,
उन्हें हक़ है, वो कह जाते हैं सबके रू-ब-रू क्या-क्या.
नशे में हो कोई जब, होश की बातें नहीं करते,
असर मय का है, टूटेंगे अभी जामो-सुबू क्या-क्या.
परीशां कर रहे हैं, रोज़ नाहक हम गरीबों को,
बताएं तो सही आख़िर उन्हें है जुस्तुजू क्या-क्या.
सितम, जोरो-जफ़ा, दहशत, तशद्दुद, साज़िश-आरायी,
खुदा ही जनता है और भी है उनकी खू क्या-क्या.
हम अपने शह्र में रुसवा हुए इसका नहीं शिकवा,
हमें गम है, हमें इस शह्र से थी आरजू क्या-क्या.
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शनिवार, 18 अक्तूबर 2008
परिंदों की दरख्तों से हुई थी गुफ्तुगू क्या-क्या.
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5 टिप्पणियां:
सितम, जोरो-जफ़ा, दहशत, तशद्दुद, साज़िश-आरायी,
खुदा ही जनता है और भी है उनकी खू क्या-क्या.
हम अपने शह्र में रुसवा हुए इसका नहीं शिकवा,
हमें गम है, हमें इस शह्र से थी आरजू क्या-क्या.
bahtreen ...bahut sunder
वाह ! क्या बात है !!
बहुत सुन्दर रचना है।
सितम, जोरो-जफ़ा, दहशत, तशद्दुद, साज़िश-आरायी,
खुदा ही जनता है और भी है उनकी खू क्या-क्या.
हम अपने शह्र में रुसवा हुए इसका नहीं शिकवा,
हमें गम है, हमें इस शह्र से थी आरजू क्या-क्या.
वो ताक़तवर हैं, नाज़ुक वक़्त है, दुश्मन हवाएं हैं,
उन्हें हक़ है, वो कह जाते हैं सबके रू-ब-रू क्या-क्या.
--वाह!! क्या बात है-आनन्द आ गया.
बहुत सुंदर. आज के माहौल में देखा जाय तो और भी सुंदर.
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