कोई भी मनुष्य अपनी पीठ पर अपने धर्म का ठप्पा लगवाकर जन्म नहीं लेता। यह उसके माँ-बाप होते हैं जो पीढियों से चले आ रहे अपने धर्म में उसे ढाल लेते हैं। उस शिशु का अपराध केवल इतना है कि उसने उनके घर में जन्म लिया है. बात तो जब होती कि उसे प्रारंभ से ही सभी प्रमुख धर्मों की निष्पक्ष शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता और वयस्क होने पर उसे अपने लिए कोई धर्म चुनने की छूट होती. किंतु विश्व का तथाकथित सभ्य समाज यह छूट कभी नहीं दे सकता. आश्चर्य की बात है कि अस्वस्थ होने की स्थिति में अपनी इच्छानुरूप डाक्टर, मुक़दमे के लिए मनचाहा वकील, शिक्षा के लिए अच्छी संस्था चुनने का हमें पूरा अधिकार है और धर्म जिसपर परलोक के जीवन का सारा दारो-मदार है उसे चुनने के लिए हम बिल्कुल स्वाधीन नहीं हैं. यह हमारी धार्मिक पराधीनता नहीं है तो और क्या है ?हम धर्म परिवर्तन के नाम पर इतना चील-पों मचाते हैं और कभी यह सोचने का कष्ट नहीं करते कि हम स्वयं किस धर्म के अनुयायी हैं. क्या हिंदू, मुसलमान और ईसाई धर्म वही है जो इसके मानाने वाले कर रहे हैं. धर्म से अधर्म की और जाना भी तो धर्म परिवर्तन ही है. हमारे अधर्मी हो जाने पर कोई चीख-पुकार क्यों नहीं होती ? हम में से जो लोग नास्तिक हैं वह भी हमारे किसी समाज का निशाना नहीं बनते. अब रह गई बात लालच या दबाव से धर्म परिवर्तन करने की. मुझे यह बता दीजिये कि लालच किस में नहीं है और दबाव को कौन स्वीकार नहीं करता ? मैं संतों की बात नहीं कर रहा हूँ. आपके और अपने जैसे सामजिक प्राणियों की बात कर रहा हूँ. जब जीवन के हर क्षेत्र में दबाव और लालच का प्रवेश है, क्षण भर में एक राजनीतिक पार्टी से कूदकर दूसरी में चले जाते हैं, एक नौकरी छोड़कर दूसरी नोकरी स्वीकार कर लेते हैं और सुख-सुविधाओं के मोह में क्या-क्या नहीं कर डालते, फिर सारी आपत्ति धर्म-परिवर्तन को लेकर ही क्यों है. ब्रह्मण देवता यदि मृत्यु शैया पर हों तो किसी दलित या मुसलमान का रक्त लेकर जीवन दान प्राप्त कर सकते हैं, न धर्म अशुद्ध होता है और न ही उनके ब्राह्मणत्व पर आंच आती है. मौलाना साहब को किसी हिन्दू का रक्त शरीर में चढ़वाने में मुशरिक हो जाने का कोई खतरा नहीं दिखायी देता। खून को लेकर हमने बहुत से मुहावरे गढ़ रक्खे हैं. खून सफ़ेद हो जाना, खून का पानी हो जाना, आंखों में खून उतर आना इत्यादि इत्यादि. अब हमें चाहिए कि हम कुछ और भी मुहावरे गढ़ लें. उदाहरण स्वरुप खून का मुसलमान हो जाना, खून का हिन्दू हो जाना, खून का दलित हो जाना इत्यादि-इत्यादि. जब खून शरीर में प्रवेश करने के बाद भी हमारी मानसिकता नहीं बदल पाता, फिर धर्म परिवर्तन से हमारी मानसिकता कैसे बदल सकती है ? धर्म परिवर्तन तो एक बाह्य सत्य है जबकि शरीर में खून चढ़वाना एक अन्तःकीलित सच्चाई है. क्या हम में से कोई जानता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से अबतक हम कितने धर्म परिवर्तन कर चुके हैं ?
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8 टिप्पणियां:
कौन इंसान किस धर्म को मानता है...यह तो उसका मौलिक अधिकार है...इसमें दख़ल देने का किसी को कोई हक़ नहीं होना चाहिए...यह हमारे संविधान में भी शामिल है...
क्या मै मक्का या वेटीकन सिटी मे जा कर बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहुं तो मुझे अनुमति मिलेगी? देखिए अब धर्मो को उपयोग साम्राज्यवादी हितो के लिए होने लगे है। धर्म व्यक्ति के राष्ट्रिय निष्ठा को भी प्रभावित करते है। ऐसे मे विदेशी धन के प्रयोग से भारत,नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान और ईराक मे चर्च गरीब लोगो का धर्मानंतरण कर रहा है जो स्थानिय लोगो के लिए सर्वथा अस्वीकार्य होगा।
डलर और पौण्ड फेंक कर लोगो की धार्मिक आस्था खरीदने की कोशिस करने वाले लोग धर्म का सही अर्थ नही समझते। धर्मानतरण हिंसा ही है।
Aapke khayaalat par tabdsre dekhe jin ka koi talluq un nukton se nahin hai jinki taraf aapne tavajjo dilaayi hai.Mujhe aapse ittefaaq hai aur muhtarma firdaus ne theek ikh hai.
Motamuashbal
Aapke khayaalat par tabdsre dekhe jin ka koi talluq un nukton se nahin hai jinki taraf aapne tavajjo dilaayi hai.Mujhe aapse ittefaaq hai aur muhtarma firdaus ne theek likh hai.
Motamuashbal
Aapke khayaalat par tabdsre dekhe jin ka koi talluq un nukton se nahin hai jinki taraf aapne tavajjo dilaayi hai.Mujhe aapse ittefaaq hai aur muhtarma firdaus ne theek likha hai.
ALTAMASH
Aapke khayaalat par tabsre dekhe jin ka koi talluq un nukton se nahin hai jinki taraf aapne tavajjo dilaayi hai.Mujhe aapse ittefaaq hai aur muhtarma firdaus ne theek likha hai.
ALTAMASH
क्यों परेशां हो बदलने को धर्म दूसरों का?
खुदा का कोई मजहब नहीं होता.
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