वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भर क्या था।
मुझे ख़ुद अपने बदन में किसी का डर क्या था।
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कोई तमीज़ न की खून की शरारत ने,
इक अबरो-बाद का तूफाँ था, दश्तो-डर क्या था।
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ज़मीन पे कुछ तो मिला चन्द उलझनें ही सही,
कोई न जान सका आसमान पर क्या था।
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मेरे ज़वाल का हर रंग तुझ में शामिल है,
तू आज तक मेरी हालात से बे-ख़बर क्या था।
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अब ऐसी फ़स्ल में शाखों-शजर पे बार न बन,
ये भूल जा कि पसे-सायए शजर क्या था।
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चिटखती, गिरती हुई छत, उजाड़ दरवाज़े,
इक ऐसे घर के सिवा हासिले-सफ़र क्या था।
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2 टिप्पणियां:
नमस्कार शमीम साहिब
बहुत खूब लिखा है
जनाब मुझे तो मतला ही खूब पसंद आया
वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भार क्या था।
मुझे ख़ुद अपने बदन में किसी का डर क्या था।
मिसरा-ऐ-उला में काफिया भी जानदार बन पड़ा है.
"अब ऐसी फ़स्ल में शाखों-शजर पे बार न बन,
ये भूल जा कि पसे-सायए शजर क्या था।"
यह शेर ख़ास तौर पर पसंद आया.
चिटखती, गिरती हुई छत, उजाड़ दरवाज़े,
इक ऐसे घर के सिवा हासिले-सफ़र क्या था।
लिखते रहिएगा आगे भी
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