वरक-वरक मेरे ख़्वाबों के ले गई है हवा
पता नहीं उन्हें किन वादियों में डाल आए
शदीद दर्द सा महसूस कर रहा हूँ मैं
बिखर गया हूँ उन अवराक में कहीं मैं भी.
हुदूदे-जिस्म में शायद बचा नहीं मैं भी.
वो घर कि जिस में लताफत की जलतरंग बजे
मिलाये ताल तबस्सुम हया के नगमों से
सितार छेड़ रही हों शराफतें कुछ यूँ
कि हमनावाई के आहंग उभरें साजों से
वो घर भी ख़्वाबों के अवराक में रहा होगा
पढ़ा जो होगा किसी ने तो हंस दिया होगा
वो ख्वाब अब मैं दोबारा न देख पाऊंगा
कि मुझमें ख्वाबों के अब देखने की ताब नहीं
बनाना चाहता फिर ज़िन्दगी अजाब नहीं
कि फिर हवा कोई आकर उन्हें उडा देगी
कि फिर मैं दर्द की शिद्दत से टूट जाऊँगा.
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गुरुवार, 28 अगस्त 2008
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2 टिप्पणियां:
आनन्द आ गया. पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
वो ख्वाब अब मैं दोबारा न देख पाऊंगा
कि मुझमें ख्वाबों के अब देखने की ताब नहीं
बनाना चाहता फिर ज़िन्दगी अजाब नहीं
कि फिर हवा कोई आकर उन्हें उडा देगी
कि फिर मैं दर्द की शिद्दत से टूट जाऊँगा.
बहुत ख़ूब. क्या बात है.
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