हवाएं गर्म बहोत हैं कोई गिला न करो
है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
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शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
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1 टिप्पणी:
'डरो न ज़ुल्म से…'बहुत ख़ूब।
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