दूर मैदान में बनी
झोंपड़ी की टूटी-फूटी छ्त से
पंछियों से भरा आसमान दीखता है.
पंछियों की चहचहाहट सुनती
लेटी हुई बीमार माँ
पूछती है अपनी लड़की से-
'तेरे हाथ में क्या है बेटी?'
'पंछी का संवलाया पंख माँ.'
'जा बेटी, चूल्हे पर हंडिया चढ़ा दे,
तेरे बापू खेत से आते ही होंगे.'
माँ कहती है और
दर्द से कराहते हुए
अपने मर्द और शाम का
स्वागत करने को उठ बैठती है.
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75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
शनिवार, 23 अगस्त 2008
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1 टिप्पणी:
मेरे साथ-साथ आपको भी हैरानी होती होगी कि क्योंकर मैं आपकी लगभग हरेक कविता पर टिप्पणी देने पहुँच ही जाता हूँ . खातिर जमा रखिये 'सुधि' साहेब , आप लिखते ही इतना खूबसूरत हैं . 'पंछी का संवलाया पंख माँ.' से बेहतर प्रतीक कोई दूसरा नही हो सकता था, माहोल को एक लाइन में उकेरने के लिए, आपकी कलम को लाख -लाख सलाम .
-अमित पुरोहित
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