बुधवार, 6 अगस्त 2008

तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो / मीरा जी

[मीरा जी (1912-1949) उन गिने-चुने उर्दू कवियों में हैं जो अपनी छोटी सी जिंदगी में बड़ी सी पहचान छोड़ गए.गुजरानवाला में जन्मे मुहम्मद सनाउल्लाह सनी दर को मीरा सेन के इश्क ने मीरा जी बना दिया.उनके पिता इंडियन रेलवेज़ में इंजिनियर थे. लेकिन मीरा जी अपना घर छोड़कर बंजारों की जिंदगी गुजारना अपना मुक़द्दर बना चुके थे. स्कूल से नाम जरूर कटवा लिया लेकिन गहन अध्ययन के स्कूल की स्थायी सदस्यता कभी नहीं छोड़ी. अदबी दुनिया लाहौर, साकी दिल्ली और ख़याल बम्बई जैसी उच्च साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़े रहे.कुछ वर्षों आल इंडिया रेडियो दिल्ली में भी काम किया. संस्कृत और फ्रेंच साहित्य से प्रभावित थे. विशेष रूप से बादलेयर से. उर्दू कविता में प्रतीकात्मकता को जन्म देने का श्रेय मीरा जी को है. संस्कृत कवि दामोदर गुप्त और फ़ारसी कवि उमर खैयाम का अनुवाद करके उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवा लिया. किंतु जिंदगी को शराब में इस गहराई तक डुबो चुके थे कि तैर कर बाहर निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं रह गया.]
तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो
चाँद तारों से परे और भी दुनियाएं हैं
तुमने ही मुझसे कहा था कि ख़बर ले आओ
मेरे दिल में वहीं जाने की तमन्नाएं हैं

और मैं चल दिया, कुछ गौर किया कब इसपर
कितना महदूद है इंसान की कूवत का तिलिस्म
बस यही जी को ख़याल आया तुम्हें खुश कर दूँ
ये न सोचा कि यूँ मिट जायेगा राहत का तिलिस्म

और अब हम्दमियो-इशरते-रफ़्ता कैसी
आह अब दूरी है, दूरी है, फ़क़त दूरी है
तुम कहीं और कहीं मैं नहीं पहले हालात
लौट के आभी नहीं सकता ये मजबूरी है

मेरी किस्मत की जुदाई तुम्हें मंज़ूर हुई
मेरी किस्मत को पसंद आयीं न मेरी बातें
अब नहीं जलवागहे-खिल्वते शब अफ़साने
अब तो बस तीरओ तारीक हैं अपनी रातें
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.