रविवार, 3 अगस्त 2008

खलीलुर्रहमान आज़मी की याद में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

प्रारंभिक शब्द
खलीलुर्रहमान आज़मी उर्दू के प्रतिष्ठित कवि और उच्च श्रेणी के आलोचक थे और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में अन्तिम साँस तक रीडर के पद पर रहे. विभागीय राजनीति के चलते उनके प्रोफेसर होने के मार्ग में हर सम्भव रुकावटें डाली गयीं. राजनीति की इस गन्दगी का दुःख खलील साहब झेल नहीं पाये. उनकी तुलना में जो सज्जन शोर मचा रहे थे उनकी योज्ञता खलील साहब का पासंग भी नहीं थी. 1964 में ऐसा ही हंगामा राही मासूम रज़ा के विरुद्ध किया गया था और उसमें भी यही सज्जन पेश-पेश थे. खलील साहब को उनके निधनोपरांत प्रोफेसर बनाया गया. इस नज़्म में इन्हीं तथ्यों का संकेत है. [ ज़ैदी जाफ़र रज़ा ]

मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है, ये सब जानते हैं
ज़ीस्त से ज़ात की वाबस्तगिए-बेमानी
हसरतो-ख्वाहिशो-लज्ज़त की तरंग
नफ़्से-इंसान में भर देती है
और इंसान समझता है कि वो जिंदा है.

जिंदगी नफ़्स-परस्ती तो नहीं
ज़ीस्त ऊपर से बरसती तो नहीं
ज़ात है तशनए-मानीए-वुजूद
ज़ात को चुन के बशर
जी तो सकता है, मगर
सिर्फ़ तारीक फ़िज़ाओं में भटकने के लिए.

वो जो कल उठ गया इस दुनिया से
यानी हम सब का खलील
मौत को उसने चुना
ज़ात को तरजीह न दी
बात ये है कि वो था
वाक़िफ़े-सिर्रे-जमील
मौत से पहले जो मर जाता है,
हर मुसीबत से ब-आसानी गुज़र जाता है
ज़िन्दगी उसकी थी इस क़ौल की रौशन तमसील.

उसकी पेशानी पे उभरी न कभी कोई लकीर
उसके होंटों ने बनाए न कभी ज़ाविए टेढे-सीधे
उसकी आंखों में न झलका कोई लायानी सवाल
वो सरापा था तबस्सुम की मिसाल.
मौत थी उसके लिए शोख़ सहेली की तरह
कमनज़र बूझ न पाये उसको
एक पुरपेच पहेली की तरह.
मक़्सदे-ज़ीस्त पे थी उसकी निगाह
इल्मो-हिकमत का वो दरिया था अथाह
हम उसे प्यार से मौलाना कहा करते थे
उसके जीने की दुआ करते थे
लोग कहते हैं कि बीमार था वो
जी नहीं, सिर्फ़ सदाक़त का तलबगार था वो
खोले-इंसान में पोशीदा दरिंदों के लिए
मिस्ले तलवार था वो.
पाँव से रौंद के औराक़े-सियासत उसने
हक़्क़ो-इन्साफ़ को दी थी आवाज़
मस्नादो-कुर्सियो-मंसब की उसे भूक न थी
इन्तेहा दर्जे का ख़ुददार था वो
जुम्बिशे-नोके-क़लम से उसने
उहदे तिफली में की 'आतिश' पे करम की बारिश
उसकी तहरीर ने अश'आर को मानी बख्शे
उसकी तखलीक में था सोजो-गुदाज़
उस से तनकीद ने पाया एजाज़
हंसके वो झेल गया जुल्मो-सितम की बारिश.
मानने के लिए मजबूर थे सब उसका वुजूद
चश्मे-बातिल में खटकता था वो कांटे की तरह
सोग में उसके फ़िज़ा करती है गम की बारिश

हक तो ये है कि वो दुनियाए-अदब का था इमाम
सर-ब-सजदा था अदब उसकी इता'अत के लिए
उसको मालूम था आदाबे-इमामत क्या है.
इक इदारा था वो अरबाबे-बसीरत के लिए

मौत की उसके ख़बर मैं ने सुनी, सबने सुनी,
लोग दौडे उसे कांधा देने
रस्मे-दुनिया है यही
वो था खामोश मगर सारी फ़िज़ा कहती थी
जिस्म को छू के हवा कहती थी
दर्स्गाहों के ज़मींदारों से जाकर पूछो
उनकी फिहरिस्त में हैं और अभी कितने नाम ?
और किस-किस को पिलायेंगे शहादत का ये जाम ?
क्या लगायेंगे किसी रोज़ सियासत को लगाम ?
या इसी तौर चलेगा हर काम ?

मैं ने ताबूत को कांधा जो दिया
घुल गई जिस्म में मेरे भी क़ज़ा
मुझको महसूस हुआ
मैं भी ताबूत के इक गोशे में लेटा हूँ कहीं
लोग मुझको भी सुला देंगे इसी सूरत से
मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है ये सब जानते हैं
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1 टिप्पणी:

vipinkizindagi ने कहा…

bahut achchi likhi hai...
magar kuch shbd kathin hai.