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गुरुवार, 7 अगस्त 2008

होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बातें इधर-उधर की उडाने में बेवक़ूफ़
कुर्सी पे ऐंठ अपनी जताने में बेवक़ूफ़
गिरते हैं दूसरों को गिराने में बेवक़ूफ़
माहिर हैं चोट खाने खिलाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

पूरा कभी हुआ न कोई जिंदगी का खब्त
रहता है बात-बात पे बस बरहमी का खब्त
कजरव हैं, फिर भी रखते हैं आला-रवी का खब्त
ख़ुद नाचते हैं सबको नचाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

मक्खन लगाए जो भी समझते हैं उसको दोस्त
नखरे उठाये जो भी समझते हैं उसको दोस्त
पास आए-जाए जो भी समझते हैं उसको दोस्त
डूबे हैं ऐसे दोस्त बनाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

फिसले कभी इधर कभी उस सिम्त जा पड़े
आका के गुनगुनाने पे ख़ुद गुनगुना पड़े
हमदर्द कोई टोके, तो क़ह्रे-खुदा पड़े
रहते हैं बंद अपने की खाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

गुड़हल का फूल उनकी नज़र में गुलाब है
जो है फुजूल उनकी नज़र में गुलाब है
हर बे-उसूल उनकी नज़र में गुलाब है
मसरूफ हैं गुलाब उगाने में बेवक़ूफ़
होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

यूँ तो खुदा की शान है नादाँ की बात-चीत
लेकिन अज़ाबे-जान है नादाँ की बात-चीत
बेछत का इक मकान है नादाँ की बात-चीत
फिर भी मगन हैं ख़ुद को गिनाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

मैदाने-बेवकूफी में जो बे-मिसाल है
इस दौर में दर-अस्ल वही बा-कमाल है
उसके ही इक़्तिदार का हर सिम्त जाल है
कुदरत के भर गए हैं खज़ाने में बेवक़ूफ़.
होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़
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बुधवार, 6 अगस्त 2008

ई. सी. का इलेक्शन / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इब्तिदाई अल्फ़ाज़
यूनिवर्सिटियों में एक्जीक्युटिव काउन्सिल और अकैडेमिक काउन्सिल, यूनिवर्सिटी से मुतअल्लिक़ तमाम इन्तिजामी और इल्मी फैसले करने के बाइस बेहद अहम् समझी जाती हैं. इसमें इलेक्शन के ज़रिये मुन्तखब उस्तादों की भी नुमाइंदगी होती है. इलेक्शन के ज़माने में उस्तादों के तब्सेरे सुनने से तअल्लुक़ रखते हैं. इस नज़्म में यही मंज़र-कशी की गई है. ज़ैदी जाफ़र रज़ा
गूं-गाँ से फिर आबाद हुआ अपना नशेमन
फिर शोर-शराबे का हुआ ज़ोर दनादन
फिर फ़न्ने-सियासत का वसी हो गया दामन
फिर मिल गया हर माहिए-बे-आब को जीवन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन

ज़ूलाजी का है ज़ोर, केमिस्ट्री की फबन है
तादाद पे इंजीनियरिंग अपनी मगन है
हर दिल में मगर साइकोलाजी की चुभन है
तब्दील अखाड़े में हुआ इल्म का मद्फ़न
लो आ गया फिर घूम के ई. सी.का इलेक्शन

कहता है कोई देखो वो क़ातिल है , न जीते
और उसको न दो वोट, वो जाहिल है, न जीते
सीधा है तो क्या, यारो वो पिल-पिल है, न जीते
अच्छे नहीं ये बाहमी तकरार के लच्छन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन

मेडिकोज़ की है राय कि हारेंगे नहीं हम
कहना है तबीबों का कि हम भी हैं नहीं कम
मैदान में है आर्ट्स फैकल्टी की भी छम-छम
सज धज के निकल आए गुलाब और करोटन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन
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मंगलवार, 5 अगस्त 2008

मेडिकल कालेज का एक कमरा और मैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इब्तिदाई अल्फाज़
जनवरी 1991 में जब मैं हार्ट अटैक की ज़द में आया, मुझे यूनिवर्सिटी के मेडिकल कालेज में डाल दिया गया. अस्पतालों से मैं बहोत घबराता था और उन्हें खुदा जाने क्यों इलाज-गाह के बजाय क़त्ल-गाह समझता था. चालीस-पैतालीस दिन अस्पताल में रहना कोई मामूली बात न थी. सुबह शाम कार्डियोग्राफी, ज्यादा बोलने पर पाबंदी, कभी नब्ज़ देखने और कभी टेम्परेचर देखने के लिए रोज़ नई नई नर्सों का आना जाना, टाइलेट के अलावा चलने फिरने की कत्तई इजाज़त नहीं, अजब मुसीबत थी. इन हालात में नज्में ग़ज़लें लिखने के आलावा और करता भी क्या. ये नज़्म मेडिकल कालेज के इसी तजरबे और एहसास की तर्जुमान है. [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]
धडकनों के पेचो-ख़म का ढूँढने निकला था हल
दफ़अतन झपटे मेरी जानिब दरिन्दाने-अजल
रहमते-यज़दाँ ने लेकिन की हिफ़ाज़त बर-महल
इज़्तिराबे-क़ल्ब ने पाया सुकूने-लायज़ल

इस्तिलाहे-आम में कहते है जिसको अस्पताल
मुद्दतों जिसको समझता आया मैं जाए-क़िताल
सरहदें जिसकी मेरी नज़रों में थीं काँटों का जाल
अब करम-फ़रमा हैं मुझ पर, उसकी आंखों के कँवल

सुब्ह आते ही, छिड़क जाती है अफ़्शां चार सू
नूरो-नगहत, संदलीं साग़र से करते हैं वज़ू
भावनाओ-तल'अतो-फरजाना के जामो-सुबू
नर्मिए-साक़ी से मयनोशी का जारी है अमल

वैसे तो पाबंदियां रहती हैं मुझपर बेशुमार
लब हिलाना जुर्म है, और बोलना ना-साज़गार
दस्तो-पा हैं, फिर भी चलने का नहीं है अख़तियार
खून की रफ़्तार, नब्जों का चलन, बैते-ग़ज़ल

बेडियाँ पैरों में, हाथों में पिन्हा कर हथकडी
कार्डियोग्राफी की लैला, आफतों की फुलझडी
दिन में दो-दो बार मुझको छेड़ती है दो घड़ी
तायरे-आज़ाद को मुश्किल से मिल पाता है कल

नर्मो-नाज़ुक उँगलियों के लम्स से नब्ज़ों के तार
झनझना उठते हैं अज ख़ुद, बे झिझक बे-अख़तियार
साज़े-दिल पर राग बज उठते हैं बालाए-शुमार
ये वो मौसीकी है जिसका कुछ नहीं नेमुल्बदल

मुझको डर है उँगलियों से होके कोई सुर्ख रंग
मेरी नब्ज़ों में न दर आए कहीं मिस्ले-फ़िरंग
और फिर आहिस्ता-आहिस्ता बना ले इक सुरंग
यूँ कहीं तामीर हो जाए न उल्फ़त का महल

मुझको ये जन्नत न रास आएगी तेरी ऐ खुदा
गफ़लत-आगीं वो खुमार आलूद है इसकी हवा
मुझसे कहती है मुहब्बत से मेरे दिल की सदा
ऐ क़लन्दर ! अब यहाँ से चल, यहाँ से दूर चल

जगमगाती शमओं के हर नीम-वा लब को सलाम
सर्व-क़द रौशन दरीचों के हर इक ढब को सलाम
इस म'आलिज-गाह के दीवारोदर सबको सलाम
जा रहा हूँ मैं, कि दिल क़ाबू में है कुछ आज-कल
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सोमवार, 4 अगस्त 2008

प्रोफ़ेसरी / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[ एक तंज़िया नज़्म, यूनिवर्सिटी के उस्तादों से माज़रत के साथ ]

इल्मो-हुनर की दौड़ है दर्दे - सरी की दौड़
दिन रात जाँ खपाती है दानिशवरी की दौड़
तहकीक़ का तो काम है कुबके दरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़.

कैसा भी कैरियर हो न कुछ फ़िक्र कीजिये
गढ़ गढ़ के, कारनामों का बस ज़िक्र कीजिये
दिलबर समझिये सबको, ये है दिलबरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

गर डीन आपका है, चेयरमैन आपका
बस जान लीजिये कि है सुख चैन आपका
इक छोटी-मोटी है ये फ़क़त फ़्लैटरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़

कुछ शैखे-जामिया से तअल्लुक़ बनाइये
रूठे हों देवता जो उन्हें भी मनाइए
जादू ज़बान बनिए, है जादूगरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

प्रोमोशनों के दौर में है और भी मज़ा
अच्छा बुरा है कौन, ये है कौन देखता
होती है आज थोक में सौदागरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

आलिम अगर नहीं हैं, तो बन जाइये जनाब
मैटर उडा उड़ा के, बना लीजिये किताब
चोरी का रास्ता है उड़नतश्तरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़.
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रविवार, 3 अगस्त 2008

खलीलुर्रहमान आज़मी की याद में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

प्रारंभिक शब्द
खलीलुर्रहमान आज़मी उर्दू के प्रतिष्ठित कवि और उच्च श्रेणी के आलोचक थे और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में अन्तिम साँस तक रीडर के पद पर रहे. विभागीय राजनीति के चलते उनके प्रोफेसर होने के मार्ग में हर सम्भव रुकावटें डाली गयीं. राजनीति की इस गन्दगी का दुःख खलील साहब झेल नहीं पाये. उनकी तुलना में जो सज्जन शोर मचा रहे थे उनकी योज्ञता खलील साहब का पासंग भी नहीं थी. 1964 में ऐसा ही हंगामा राही मासूम रज़ा के विरुद्ध किया गया था और उसमें भी यही सज्जन पेश-पेश थे. खलील साहब को उनके निधनोपरांत प्रोफेसर बनाया गया. इस नज़्म में इन्हीं तथ्यों का संकेत है. [ ज़ैदी जाफ़र रज़ा ]

मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है, ये सब जानते हैं
ज़ीस्त से ज़ात की वाबस्तगिए-बेमानी
हसरतो-ख्वाहिशो-लज्ज़त की तरंग
नफ़्से-इंसान में भर देती है
और इंसान समझता है कि वो जिंदा है.

जिंदगी नफ़्स-परस्ती तो नहीं
ज़ीस्त ऊपर से बरसती तो नहीं
ज़ात है तशनए-मानीए-वुजूद
ज़ात को चुन के बशर
जी तो सकता है, मगर
सिर्फ़ तारीक फ़िज़ाओं में भटकने के लिए.

वो जो कल उठ गया इस दुनिया से
यानी हम सब का खलील
मौत को उसने चुना
ज़ात को तरजीह न दी
बात ये है कि वो था
वाक़िफ़े-सिर्रे-जमील
मौत से पहले जो मर जाता है,
हर मुसीबत से ब-आसानी गुज़र जाता है
ज़िन्दगी उसकी थी इस क़ौल की रौशन तमसील.

उसकी पेशानी पे उभरी न कभी कोई लकीर
उसके होंटों ने बनाए न कभी ज़ाविए टेढे-सीधे
उसकी आंखों में न झलका कोई लायानी सवाल
वो सरापा था तबस्सुम की मिसाल.
मौत थी उसके लिए शोख़ सहेली की तरह
कमनज़र बूझ न पाये उसको
एक पुरपेच पहेली की तरह.
मक़्सदे-ज़ीस्त पे थी उसकी निगाह
इल्मो-हिकमत का वो दरिया था अथाह
हम उसे प्यार से मौलाना कहा करते थे
उसके जीने की दुआ करते थे
लोग कहते हैं कि बीमार था वो
जी नहीं, सिर्फ़ सदाक़त का तलबगार था वो
खोले-इंसान में पोशीदा दरिंदों के लिए
मिस्ले तलवार था वो.
पाँव से रौंद के औराक़े-सियासत उसने
हक़्क़ो-इन्साफ़ को दी थी आवाज़
मस्नादो-कुर्सियो-मंसब की उसे भूक न थी
इन्तेहा दर्जे का ख़ुददार था वो
जुम्बिशे-नोके-क़लम से उसने
उहदे तिफली में की 'आतिश' पे करम की बारिश
उसकी तहरीर ने अश'आर को मानी बख्शे
उसकी तखलीक में था सोजो-गुदाज़
उस से तनकीद ने पाया एजाज़
हंसके वो झेल गया जुल्मो-सितम की बारिश.
मानने के लिए मजबूर थे सब उसका वुजूद
चश्मे-बातिल में खटकता था वो कांटे की तरह
सोग में उसके फ़िज़ा करती है गम की बारिश

हक तो ये है कि वो दुनियाए-अदब का था इमाम
सर-ब-सजदा था अदब उसकी इता'अत के लिए
उसको मालूम था आदाबे-इमामत क्या है.
इक इदारा था वो अरबाबे-बसीरत के लिए

मौत की उसके ख़बर मैं ने सुनी, सबने सुनी,
लोग दौडे उसे कांधा देने
रस्मे-दुनिया है यही
वो था खामोश मगर सारी फ़िज़ा कहती थी
जिस्म को छू के हवा कहती थी
दर्स्गाहों के ज़मींदारों से जाकर पूछो
उनकी फिहरिस्त में हैं और अभी कितने नाम ?
और किस-किस को पिलायेंगे शहादत का ये जाम ?
क्या लगायेंगे किसी रोज़ सियासत को लगाम ?
या इसी तौर चलेगा हर काम ?

मैं ने ताबूत को कांधा जो दिया
घुल गई जिस्म में मेरे भी क़ज़ा
मुझको महसूस हुआ
मैं भी ताबूत के इक गोशे में लेटा हूँ कहीं
लोग मुझको भी सुला देंगे इसी सूरत से
मौत के नाम से वाक़िफ़ हैं सभी
मौत लाज़िम है ये सब जानते हैं
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मंगलवार, 20 मई 2008

अलीगनामा की दो नज्में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

1. बहरूपियों का मर्तबा
तशरीफ़ लाये हज़रते यूसुफ हमीद आज
कहने लगे के इन दिनों अच्छा नहीं मिज़ाज
मैंने कहा के बात हुई क्या जनाबे-मन
बोले के क्या बताऊँ के फुंकता है तन-बदन
उल्लू की दुम हैं फ़ाख्ता जो लोग आज कल
हर रोज़ बुनके लाते हैं ख़्वाबों का एक महल
फिर उस महल को भरते हैं गीबत के रंग से
जादू चलाना चाहते हैं घटिया ढंग से
दिलचस्प बात ये है के सुनते हैं उनकी बात
वो लोग हैं बलंद बहोत जिनके मरताबात
अब आप ही बताइए जो भी हो बाशऊर
सर धुन के रह न जाए तो फिर क्या करे हुज़ूर
मैंने कहा के गुस्से को अब थूक दीजिए
हैं रोम में तो रोमियों जैसा ही कीजिए
बोले के वाह खूब कहा आपने जनाब
लाजिम है ऐसे रोम पे अल्लाह का इताब
अब देखिए न एक हैं अल्लाह बख्श खाँ
शोबे के सद्रो-डीन फैकल्टी भी हैं मियाँ
ज़ौजा जनाब की भी इसी जामिया में हैं
दोनों खुदा के फज्ल से अहले-वफ़ा में हैं.
दर अस्ल इन दिनों है वफ़ा बस मुसाहिबी
चालाक जो हैं करते हैं चौकस मुसाहिबी
ये जोडा जिसका ज़िक्र किया मैंने आप से
बढ़-चढ़ के आज कल हैं बहोत इसके हौसले
बैरूनी मुल्क में थी अभी एक कानफरेंस
अल्लाह बख्श लेके उसे थे बहोत ही टेन्स
कुछ दौड़-धूप करके हुए आप कामयाब
फिल्फौर जामिया ने किया उनका इन्तिखाब
तारीखें ऐसी पड़ गयीं इस कानफरेंस की
इनमें ही डीन होने की आफत थी आ फँसी
की जोड़-तोड़ कुर्सी पे मक्बूज़ हो गए
गो ख़त्म कानफरेंस थी शामिल मगर हुए
शिरकत की लेके आए सनद अपने साथ-साथ
खुश थे के हमने मार लिए दोनों सम्त हाथ
अल्लाह की है शान अजब, बात खुल गई
दब जाए सारा मामला कोशिश बहोत हुई
दिखलाया अपना जौजए मौसूफ़ ने कमाल
हैं शेखे-दर्स्गाह बहोत नेको-खुश-खिसाल
पहोंचीं वो बारगाह में उनकी बचश्मे-नम
बोलीं के बेगुनाहों पे होता है क्या सितम
शौहर मेरे, हुज़ूर के हैं बावाफाओं में
ख्वाहिश है दुश्मनों की घिरें वो बालाओं में
एक साहिबा सितारा जबीं हैं जो शक्ल से
मशहूर है, क़रीब हैं इज्ज़त-मआब के
अल्लाह जाने रखती हैं किस बात की जलन
शौहर को मेरे कहती हैं बातिल व हक-शिकन
इल्जाम उनका है के मेरे शौहरे हज़ीं
मुतलक भी कानफरेंस में शामिल हुए नहीं
मुह्तार्मा की नज़र में सनद भी है मज़हका
महफ़िल में ज़िक्र करके लगाती हैं क़हक़हा
कीजे उन्हें खामोश खुदारा किसी तरह
रखिए वकार आप हमारा किसी तरह
आंखों से अश्क छलके तो आरिज़ पे आ गए
इज्ज़त मआब देख के ये थरथरा गए
बोले के मैडम आप परीशां न हों ज़रा
मुझको ख़याल पूरा है अल्लाह बख्श का
सुनना था ये के चेहरए -बेजान खिल उठा
जादू चला के कल्बे-मुसलमान खिल उठा
सुनता रहा बगौर मैं ये दास्ताँ तमाम
दिल ने कहा के ऐसे हैं घपले यहाँ तमाम
अच्छी तरह से जानते हैं शेखे-दर्स्गाह
पर क्या करें, मुरव्वतें हैं दिल में बेपनाह
कुछ लोग अश्क भरके तो कुछ लेके भर्रियाँ
अच्छी तरह से काटते हैं ज़िंदगी यहाँ
दर अस्ल शेखे-जामिया हैं इतने नेक-खू
सबसे तअल्लुकात की रखते हैं आबरू
कुछ भी नहीं है फर्क सियाहो-सफ़ेद का
बहरूपियों का खूब यहाँ पर है मर्तबा
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2. अगवा
शोर था उस्ताद की बेगम का अगवा हो गया
क्या गज़ब है देखिए कैसा तमाशा हो गया
गुंडा-गर्दी की भी आख़िर कोई हद है या नहीं
दुश्मनी मीयाँ से थी बीवी पे हमला हो गया
सानहे की दर्ज थाने में हुई चट-पट रिपोर्ट
और अख्बारत में फिल्फौर चर्चा हो गया
बायाँ बाजू था मुखालिफ, शेखे-दानिश्गाह का
वाकए को ले उड़ा, कुछ ज़ोर तगड़ा हो गया
आ गई चश्मे-ज़दन में तेज़ हरकत में पुलिस
जीपें दौडीं मुखतलिफ सम्तों का दौरा हो गया
इब्तदा से आगई तफ्तीश में संजीदगी
रास्तों में हर तरफ़ पूलिस का नाका हो गया
लोग हमदर्दी जताने आए घर उस्ताद के
अहमियत बढ़ने लगी हर सू तहलका हो गया
जम के लीं दिल्चास्पियाँ हर तरह से अहबाब ने
दावतें लोगों ने खायीं, ज़िबह बकरा हो गया .
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