रविवार, 31 अगस्त 2008

मेरा गाँव.../ सुधीर सक्सेना 'सुधि'

न जाने क्या हो रहा है!
मेरे गाँव को...
पूरी रात का बोझ
अपने कुबड़े कंधों
पर ढो रहा है.
कुत्ते जो यहाँ के
आदमियों से भी अधिक
आवारा हैं, भौंक रहे हैं,
और आदमी!
कुत्तों की आवाज़ से
चौंक रहे हैं.
गाँव के सूखे पोखर
आजकल थकावट
घोल जाते हैं और
भेड़-बकरियों के झुण्ड
भटकते ही रहते हैं
अपने ही पांवों से
पैदा हुए अंधड़ में.
कौन यहाँ
खेतों और खलिहानों में
बीता हुआ वक़्त बो रहा है!
पता नहीं,
मेरे गाँव को क्या हो रहा है!
पूरी ज़िन्दगी का बोझ
अपने कुबड़े कंधों पर ढो रहा है.
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75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

1 टिप्पणी:

अमित पुरोहित ने कहा…

'...भटकते ही रहते हैं
अपने ही पांवों से
पैदा हुए अंधड़ में.'
इनमे मनुष्य भी शामिल हैं, अगर वह मनुष्य कहलाने के काबिल हो तो ... एक और खूबसूरत कविता के लिए एक और बधाई !