कितना सह्ल जाना था खुशबुओं को छू लेना
बारिशों के मौसम में, शाम का हरेक मंज़र
घर में क़ैद कर लेना
रौशनी सितारों की मुट्ठियों में भर लेना
कितना सह्ल जाना था, खुशबुओं को छू लेना
जुगनुओं की बातों से, फूल जैसे आँगन में
रोशनी सी कर लेना
उसकी याद का चेहरा ख्वाबनाक आंखों की
झील के गुलाबों पर, देर तक सजा रखना
कितना सह्ल जाना था.
ऐ नज़र की खुशफ़हमी ! इस तरह नहीं होता
तितलियाँ पकड़ने को दूर जाना पड़ता है।
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4 टिप्पणियां:
achchi post
उसकी याद का चेहरा ख्वाबनाक आंखों की
झील के गुलाबों पर, देर तक सजा रखना
कितना सह्ल जाना था.
bhaut khoob
बेहतरीन नज़्म...वाह.
नीरज
नोशी गीलानी को पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
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