[36]
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..
मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..
अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..
जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..
मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..
आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..
इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..
सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..
मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..
अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..
जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..
मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..
आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..
इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..
सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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आभार इस प्रस्तुति के लिए.
बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद
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