सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया

दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया
दुख ये है मेरी आंखों पे कुहरा सा छा गया.
जुगराफ़ियाई दूरियों का कोई ग़म नहीं,
ग़म ये है दिल को तोड़ के वो मह्लक़ा गया.
मजबूरियाँ थीं ऐसी, मैं कुछ भी न कर सका,
वक़्त आया ऐसा भी, मुझे देकर सज़ा गया.
मैं उसके दर की ख़ाक पे सज्दा न कर सका,
बारिश हुई कुछ ऐसी, कि सारा मज़ा गया.
कोई नहीं जो दफ़्नो-कफ़न की करे सबील,
रुखसत का, इस जहान से, अब वक़्त आ गया.
रंजो-अलम के दौर में भी, हूँ मैं नग़मा-रेज़,
हालात ऐसे देख के, जी थरथरा गया.
मय के हर एक घूँट में था ज़िन्दगी का राज़,
साक़ी ये जामे-वस्ल पिलाकर चला गया.
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3 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'दुख ये नहीं कि …'
बहुत ही मर्मस्पर्शी। शायद हम सभी की कथा है ये।

बेनामी ने कहा…

bahut he mermsparshi kavita hai

गौतम राजऋषि ने कहा…

वाह---बहुत खूब "मैं उसके दर की ख़ाक पे सज्दा न कर सका / बारिश हुई कुछ ऐसी, कि सारा मज़ा गया"...क्या खूब सर