बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.
अब ये सीने की जलन बाइसे-ग़म होती नहीं.
बात इक शब की है, लेकिन नहीं मिलते अल्फाज़,
दास्ताँ, जैसी कि थी, मुझसे रकम होती नहीं.
चन्द लम्हों की मुलाक़ात का इतना है असर,
उसके चेहरे से जुदा, दीदए- नम होती नहीं.
अब पिला देता है ख़ुद से वो मुझे जाम-पे-जाम,
अब तो पीने में ये गर्दन भी क़लम होती नहीं.
मुझमें और उसमें कोई फ़ास्ला बाक़ी न रहे,
ऐसी सूरत, किसी सूरत भी बहम होती नहीं.
कितने फ़नकारों ने तस्वीरें बनायीं उसकी,
एक तस्वीर भी हमरंगे-सनम होती नही
मेहरबाँ होके न होने दिया उसने मुझे दूर,
ज़िन्दगी मिस्ले-शबे-रंजो-अलम होती नही
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बाइसे-ग़म=दुख का कारण, अल्फाज़=शब्द, दास्ताँ=कथा, रक़म=लिखना, दीदए-नम=भीगी आँखें, क़लम होना=काटा जाना, बहम=एकत्र, फनकारों=कलाकारों, हमरंगे-सनम=महबूब के स्वभाव की, मेहरबाँ=कृपाशील, मिस्ले-शबे-रंजो-अलम=दुख और पीड़ा की रात जैसी.

2 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

एक एक पंक्ति में गज़ब का जादू है .....अच्छी रचना है ...

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

गौतम राजऋषि ने कहा…

ये इक शेर "बात इक शब की है, लेकिन नहीं मिलते अल्फाज़ / दास्ताँ, जैसी कि थी, मुझसे रकम होती नहीं" ---शैलेश साब,शैलेश साब,शैलेश साब---उफ़ !
सादर दंडवत !!!

क्या बीती है इस शेर पे काश कि मेरे शब्दों में सामर्थ्य होता बयान करने को...