फ़रेब खा के भी हर लहज़ा खुश हुए सब लोग।
कि सिर्फ़ अपने ही ख़्वाबों में गुम रहे सब लोग।
सेहर से उसने सुखन के, दिलों को जीत लिया,
कलाम अपना, वहाँ, जब सुना चुके सब लोग।
ज़रा सी आ गयी दौलत, बदल गये अंदाज़,
कि अब नज़र में ज़माने की, हैं बड़े, सब लोग।
नहीं रहा, तो सब उसके मिज़ाज-दाँ क्यों हैं,
वो जब हयात था, क्यों दूर-दूर थे सब लोग।
अक़ीदत उससे न थी, खौफ था फ़क़त उसका,
जलाएं कब्र पे क्यों उसकी अब, दिये, सब लोग।
कि सिर्फ़ अपने ही ख़्वाबों में गुम रहे सब लोग।
सेहर से उसने सुखन के, दिलों को जीत लिया,
कलाम अपना, वहाँ, जब सुना चुके सब लोग।
ज़रा सी आ गयी दौलत, बदल गये अंदाज़,
कि अब नज़र में ज़माने की, हैं बड़े, सब लोग।
नहीं रहा, तो सब उसके मिज़ाज-दाँ क्यों हैं,
वो जब हयात था, क्यों दूर-दूर थे सब लोग।
अक़ीदत उससे न थी, खौफ था फ़क़त उसका,
जलाएं कब्र पे क्यों उसकी अब, दिये, सब लोग।
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2 टिप्पणियां:
'फ़रेब खा के भी…'
आज की सच्चाई है। बल्कि सही कहें तो 'फ़रेब खा के ही…'
बधाई।
हर लहजा बेहतर ग़ज़ल पढ़ी साहब आपने।
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