बुधवार, 24 दिसंबर 2008

ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.

ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.
मैं पूछता रहा, घर आये कुछ परिंदों से.
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जिधर भी देखिये होती हैं जंग की बातें,

कोई भी थकता नहीं आज ऐसे चर्चों से.
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अशोक चक्र जनाजे पे जाके रख देना,
मिलेगी शान्ति तुम्हें क़ौम के शहीदों से.
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हमारा धैर्य बहुत जल्द टूट जाता है,
कभी भी सीख कोई ली न हमने पुरखों से.
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समझ से काम लो इतने उतावले न बनो,
ये पानी और अब ऊपर चढ़े न घुटनों से.
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उसे ज़रा भी है अपने किये का पछतावा,
सवाल करता रहा मैं गुज़रते लम्हों से.
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हमारी दूरियां बढ़ती गयीं विकास के साथ,
किसी ने पूछा नहीं कुछ समय की नब्ज़ों से.
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हवाएं उनको उडाती हैं जैसे चाहती हैं,
जो पत्ते टूट चुके हों खुद अपनी शाखों से.
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3 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'हमारी दूरियां बढ़ती गईं…'
'हवाएं उनको उड़ाती हैं…'
बहुत ख़ूब!

"अर्श" ने कहा…

बहोत ही बढ़िया ग़ज़ल बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई साहब.....

अर्श

गौतम राजऋषि ने कहा…

हवाएं उनको उडाती हैं जैसे चाहती हैं,/ जो पत्ते टूट चुके हों खुद अपनी शाखों से

सुभानल्लाह !!

दुसरे शेर में "जंगों" जरा अजीब सा लग रहा है.बहर के लिये जरूरी ,मगर पढ़ते वक्त फ्लो को रोक रहा है...

आपका कोई गज़ल-संग्रह भी छपा है क्या?