बुधवार, 24 दिसंबर 2008

कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.

कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.
बहुत कड़वा कसैलापन, इधर भी है, उधर भी है.
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गँवाए हैं बड़े बहुमूल्य माँ के लाल दोनों ने,
जनाज़ों से भरा आँगन, इधर भी है, उधर भी है.
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कलाएं देश की चौहद्दियों में बंध नहीं पातीं,
कलाकारों को यह अड़चन, इधर भी है, उधर भी है.
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कहीं मिटटी के चूल्हे पर पतीली फदफदाती है,
कहीं सुलगा हुआ ईंधन, इधर भी है, उधर भी है.
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कभी थे एक, अब होकर अलग दुश्मन से लगते हैं,
इसी इतिहास का दर्पन, इधर भी है, उधर भी है.
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घरों के कितने बंटवारे करो, मिटटी नहीं बंटती,
वही पहचाना सोंधापन, इधर भी है, उधर भी है.
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परस्पर हो गयीं विशवास की रेखाएं क्यों धूमिल,
नयी, अनजानी सी धड़कन, इधर भी है, उधर भी है.
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चलेंगी आंधियां तो फूल के पौधे भी टूटेंगे,
सुगंधों से भरा उपवन, इधर भी है, उधर भी है.
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5 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

युद्ध के उन्माद के इस दौर में एक ताज़ा हवा का झोंका। साहिर की याद आ गई-
टैंक आगे बढ़ें कि पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है।
जीत का जश्न हो कि हार का सोग,
ज़िन्दगी मय्यतों पे रोती है।

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर...।

"अर्श" ने कहा…

बहोत ही बढ़िया लिखा है आपने ढेरो बधाई स्वीकारें...


अर्श

bijnior district ने कहा…

घरों के कितने बंटवारे करो, मिटटी नहीं बंटती,
वही पहचाना सोंधापन, इधर भी है, उधर भी है.
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बहुत बढि़या रचना। काशा इस हकीकत को हम उन्हें बता पाते कि युद्ध समस्या का निदान नही है।

गौतम राजऋषि ने कहा…

आज पहली बार आया आपके ब्लौग पर ... और अपने आप को कोसता जा रहा हूं कि अब तक वंचित कैसे था मैं इस खजाने से...
गज़ल का छात्र हूं...मेहनत कर रहा हूं..."घरों के कितने बंटवारे करो, मिटटी नहीं बंटती, / वही पहचाना सोंधापन, इधर भी है, उधर भी है" ऐसे शेर के जन्म्दाता को नमन !!!