शनिवार, 24 जनवरी 2009

देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.

देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.
राह में मारते इस तर्ह न पत्थर मुझको.
मैं बियाबान में दम तोड़ रहा था जिस दम,
याद बेसाख्ता आया था मेरा घर मुझको.
कर लिया दोस्तों ने तर्के-तअल्लुक़ मुझसे,
वो ग़लत कब थे समझते थे जो खुदसर मुझको.
राह देखी जो सलीबों की तो दिल झूम उठा,
बस पसंद आ गया ये मौत का बिस्तर मुझको.
दिन गुज़र जाता था खाते हुए ठोकर अक्सर,
रात में भी न हुआ चैन मयस्सर मुझको.
कम-से कम साजिशें तो होतीं नहीं मेरे ख़िलाफ़,
अच्छा होता कि समझते सभी कमतर मुझको.

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3 टिप्‍पणियां:

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

comments ki zaroorat nahin hai phir bhi ruk nahin paya, bahut sunder likha hai aapne.

अनिल कान्त ने कहा…

तारीफ के लिए शब्दों की कमी पड़ गयी... लाजवाब

अनिल कान्त
मेरा अपना जहान

गौतम राजऋषि ने कहा…

मकते ने सब कसर पूरी कर दी है सर

वाह !!!