वो मनाजिर हैं मेरी आंखों में.
देखते हैं जिन्हें सब ख़्वाबों में.
*******
मुझसे कहता है तरक्की का मिजाज,
सदियाँ तय करता हूँ मैं लम्हों में.
*******
कोई निकलेगी अमल की सूरत,
दिन गुज़र जायें न यूँ वादों में.
*******
मंदिरों मस्जिदों में भी वो नहीं,
उसको पाया न कभी गिरजों में.
*******
मैं समंदर से शिकायत करता,
वो न आता जो मेरी फ़िक्रों में.
*******
इस ज़मीं की ही तरह चाँद भी है,
पैकरे-हुस्न है क्यों ग़ज़लों में.
*******
खैरियत तक नहीं लेता कोई,
कैसी बेगानगी है शहरों में.
**************
मंगलवार, 13 जनवरी 2009
वो मनाजिर हैं मेरी आंखों में.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
मुझसे कहता है तरक्की का मिजाज,
सदियाँ तय करता हूँ मैं लम्हों में.
-क्या बात है, बहुत उम्दा.
बहोत ही बढ़िया अंदाजे बयां ..ढेरो बधाई आपको...
अर्श
वाह साब...बहुत खूब "मुझसे कहता है तरक्की का मिजाज / सदियाँ तय करता हूँ मैं लम्हों में’
एकदम नया और अनूठा शेर
...यूं चौथे शेर का काफ़िया अगर "गिरजों" करें तो कैसा रहे?चर्च का बहुवचन थोड़ा उलझन पैदा कर रहा है.छोटी मुँह बड़ी बात कर रहा हूं शायद.
एक टिप्पणी भेजें