ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.
नज़रिया अपना दबा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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जहाँ भी जैसा भी होता है उसको होने दो,
निगाह अपनी हटा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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जो पढ़ सको तो पढो नब्ज़ अक्सरीयत की,
वही मिज़ाज बना लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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ग़लत सहीह की परवाह करना है बेसूद,
सभी के साथ मज़ा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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ग़लाज़तें भी नज़र आयें तो ख़मोश रहो,
तुम उनपे ख़ाक न डालो, तो खुश रहेंगे सभी.
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शनिवार, 17 जनवरी 2009
ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.
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2 टिप्पणियां:
जो पढ़ सको तो पढो नब्ज़ अक्सरीयत की,
वही मिज़ाज बना लो, तो खुश रहेंगे सभी.
बहोत ही बढिया ग़ज़ल लिखी है साहब आपने ....ढेरो बधाई साहब आपको...
मेरी नई ग़ज़ल जरुर पढ़ें...
अर्श
बढ़िया तन्ज़ है। पर सभी तो कभी भी ख़ुश नहीं होते।
'ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि जिसे सब कहें अच्छा?'
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