शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

ये असासा है गाँव का महफूज़.

ये असासा है गाँव का महफूज़.
ज़ीस्त में है अभी हया महफूज़.
बंदगी जब नहीं तो कुछ भी नहीं,
बंदगी है, तो है खुदा महफूज़.
उसकी बेगानगी सलामत हो,
मेरे हिस्से की है क़ज़ा महफूज़.
मर्कज़ीयत उसी को हासिल है,
बस उसी का है दायरा महफूज़.
आज तक वक़्त के जरीदों पर,
खुश हूँ मैं, नाम है मेरा महफूज़.
रहने पाता नहीं है शहरों में,
कोई कानूनों-कायदा महफूज़.
राम के दौर में था क्या ऐसा,
राम-सेना में जो हुआ महफूज़.
जानते हैं ये खूब दहशत-गर्द,
दीनो-दुनिया में हैं वो ला-महफूज़.
कुछ नहीं है कहीं भी उसके सिवा,
रखिये अपना मुशाहिदा महफूज़.
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3 टिप्‍पणियां:

"अर्श" ने कहा…

आप की एक बारगी फ़िर से लेखनी ने कमाल कर दिया ,मुझे आपसे कुछ जानना था ,क्या आप की गज़लें पुरी तरह से बहर में होती है ,मेरी शंका का समाधान करें ,आप श्रेठ है आप से जानकारी पाने का हक़ समझता हूँ ,मेरी बात को अन्यथा ना ले चूँकि मुझे ग़ज़ल लेखन पसंद है इसलिए मैं जानकारी की तलाश में रहता हूँ मेरी शंका दूर करें ..

अर्श

युग-विमर्श ने कहा…

प्रिय अर्श जी
ग़ज़ल बह्र और औज़ान सीख कर नहीं कही जाती. हाँ बहरों की अपनी अलग एक अहमियत ज़रूर है. कहीं अगर कुछ खटकता हो तो तक़्तीअ कर लेने में कोई हर्ज नहीं है. वैसे शायरी ख़ुद में एक खुदा-दाद हुनर है. अच्छे शायरों की सुहबत से भी बहोत कुछ सीखा जा सकता है. तबादलए-ख़याल करते रहना चाहिए और अगर कोई किसी कमजोरी का इशारा करे तो उसपर ठंडे दिल से गौर करना चाहिए. बस यही बातें हैं जो बेहतर शेर कहने की जानिब रागिब करती हैं. ग़ज़ल कहने वाले के हाफिजे में अगर उस्तादों के हज़ार-पाँच सौ शेर भी महफूज़ हों तो क्या कहना.
जैदी जाफ़र रज़ा

गौतम राजऋषि ने कहा…

क्या बात है..
पहले तो इतनी नायाब गज़ल और फिर तिस पर ये टिप्पणियां
हम जैसे गज़ल के अराधकों को और क्या चाहिये