मैं कड़ी धूप के सन्नाटों को पिघला न सका.
तल्ख़ से होते हुए रिश्तों को पिघला न सका.
पा गयीं मुझको अकेला तो हुईं पहलू-नशीं,
और मैं चुभती हुई यादों को पिघला न सका.
लम्हे आये थे मेरे क़त्ल की साजिश लेकर,
वक़्त खामोश था उन लम्हों को पिघला न सका.
उसकी देहलीज़ पे सज्दे तो किये मैं ने बहोत,
ग़म यही है कि मैं उन सज्दों को पिघला न सका.
दिल के जांबाज़ दमागों से मुहिम जीत गये,
शोलए-फ़िक्र कभी जज़बों को पिघला न सका.
आख़िर उस शख्स की तहरीर का मक़्सद क्या है,
अपनी तख्लीक़ में जो सदियों को पिघला न सका.
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शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
मैं कड़ी धूप के सन्नाटों को पिघला न सका.
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4 टिप्पणियां:
बहुत खूब...
'पा गईं मुझको अकेला…'
बहुत ख़ूब!
बहुत सुंदर ...!
बहुत ही भावनात्मक सुन्दर रचना है ब्धाई
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