मंगलवार, 20 जनवरी 2009

क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।

क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।

ढल जाएँ एक दिन न कहीं पत्थरों में हम।

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तह्ज़ीब की ये करवटें बेसूद तो न थीं,

शामिल हैं आज वक़्त के शीशागरों में हम।

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तामीरे-नौ के ख़्वाबों का इज़हार क्या किया,

हर एक की नज़र में हुए ख़ुदसरों में हम।

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क्यों आज हमसे लेता नहीं कोई मशविरा,

कल तक बहोत नुमायाँ थे क्यों रहबरों में हम।

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मरकज़ से हाशिये पे खिसक कर हैं आ चुके,

मुमकिन है कल मिलें भी न दानिशवरों में हम।

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ये ठीक है कि हम हैं बनाते हुकूमतें,

ये भी दुरुस्त है कि नहीं खुश्तरों में हम।

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हर गाम पर वफाओं का देते हैं इम्तेहां।

हर लहजा फिर भी रहते हैं क्यों ठोकरों में हम।

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1 टिप्पणी:

"अर्श" ने कहा…

एक बार फ़िर से उम्दा ग़ज़ल .... ढेरो बधाई कुबूल करें...

अर्श