संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.
पर्वा नहीं है गर मुझे समझा नहीं कोई.
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पीड़ा से जन्म लेते हैं रचनात्मक विचार,
वो रचनाकार क्या जिसे पीड़ा नहीं कोई.
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करते रहे शिकायतें बस अन्धकार की,
हमने कभी चिराग जलाया नहीं कोई.
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चिन्ता में दूसरों की गले जा रहे हैं लोग,
अपने दुखों से शह्र में दुबला नहीं कोई.
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गंभीरता से कीजिए सौहार्द पर विचार,
चिंतन का ये विषय है, तमाशा नहीं कोई.
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प्यासे हैं, गर्म रेत है, मंजिल भी दूर है,
जारी सफर है, राह में दरया नहीं कोई.
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चहरे उदास, होंठों पे पपडी जमी हुई,
पर झोंपड़ों में भूख का शिकवा नहीं कोई.
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इन बस्तियों में प्यार कभी बांटिये तो आप,
फिर कह सकें तो कहिये कि अच्छा नहीं कोई.
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सोमवार, 12 जनवरी 2009
संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.
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4 टिप्पणियां:
वाह
बहुत खूब !
ek bar fir se umda........
'करते रहे शिकायतें…'
बहुत सुन्दर और सार्थक।
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