शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
कि हंसों की रुपहली जोडियाँ आया नहीं करतीं.
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सितारे आसमानों से उतरते अब नहीं शायद,
ज़मीनें ख्वाब उनके साथ अब बांटा नहीं करतीं.
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घरों के आंगनों में चाँदनी तनहा टहलती है,
कि दोशीज़ाएं उससे हाले-दिल पूछा नहीं करतीं.
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किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
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कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.
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नहीं बेजानो-बेहरकत कोई सोने की चिड़िया हम,
जभी चालाक कौमें अब हमें लूटा नहीं करतीं.
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मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
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दरीचों से भी होकर अब कोई खुशबू नहीं आती,
हुई मुद्दत, ये ठंडी रातें गरमाया नहीं करतीं.
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5 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'किताबें दो दिलों की दास्तानें……'
बहुत ख़ूब!

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
क्या बात है मार डाला KILLING LINES
सच मे यादों का कुछ ऐसा ही हैमिजाज
है न हों तो ही भला है बहुत दर्द देती हैं
और न हों तो उस कमी का एहसास बहुत दर्द देता है AKSHAY-MANN


http://akshaya-mann-vijay.blogspot.com/

"अर्श" ने कहा…

कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.

bahot khub likha hai ye sher aapne dhero badhai aapko sahab....

roushan ने कहा…

खुबसूरत लाइनें !
उर्दू न जानने वालों को कुछ शब्दों से परेशानी हो सकती है आपसे गुजारिश है कि ऐसे शब्दों के मायने भी अंत में दे दिया कीजिये

नीरज गोस्वामी ने कहा…

किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
सुभान अल्लाह...क्या बात है...वाह वा...
नीरज